जुनैद तुम चले गए…
नफ़रत के सौदागरों से हार के
इस ज़ालिम दुनिया को ठुकरा कर
तुम चले गए,
कांटों के बीच बेबस गुलाब रहे
और कांंटों की चुभन सह न सके,
तुम चले गए ।
लाज़िम था तम्हारा मुरझाना,
लाज़िम था तुम्हारा टूट कर बिखर जाना,
कांटे तो अब भी वैसे हैं
नुकीले,
पैने से पैने बनते हुए
हम इनकी चुभन से वाक़िफ़ हैं
हम पले ही हैं इन कांटों में,
पर अब्बू तुम्हारे दिल में लिये
कांटों की कसक में जीते हैं
वो अब भी चुभन को पाते हैं
वो अब भी तड़पते रहते हैं
और अपनी कातर ऑखों से
कांटों की फसल को देखते हैं
कांटे हैं कि फलते जाते हैं
हर ओर ही कांटे बिखरे हैं
माली ही बना वो कांटा है
जो सब के लिए अब नश्तर है
कांटों को ज़हर बतला कर
अच्छा है कि तुम चले गए,
अच्छा है कि तुम नही रहे,
लाज़िम था तुम्हारा जाना भी,
लेकिन जुनैद,
तुम दूर कहीं आसमानों से
बुलंद सदाए एहतजाज सुनते होगे,
अब गुलाबों ने सर उठाया है
पर कांटे हैं कि बढ़ते जाते हैं
इस गुलशन को लहू से रंगने को लिए,
दिन रात ये साज़िश रचते हैं!
अच्छा है जुनैद तुम चले गए !
– डॉ. एम. शहबाज
व्यंग्य लेखक एवं कार्टूनिस्ट
जेएनयू के मेरे दोस्त के लड़के की बरसी पर उसकी आत्मा को श्रद्धांजली। वह बेबाक विचार रखता था। हॉस्टल में सहपाठियों-टीचरों द्वारा इतना टॉर्चर हुआ कि मेरे मित्र का इकलौता सहारा आत्महत्या करने पर बाध्य हो गया। मेरा मित्र टूट कर रह गया। शब्द सुमन… – शहबाज