हथियारों का कुटीर उद्योग – भाग 2
देश की बहादुर और कमाल की कारीगरी का पूरोधा समाज देश के ही लोक प्रतिनिधियों की उदासिनाता और सरकारी रवैय्ये के साथ ही साथ समाज द्वारा बहिष्कृत कर देने के चलते अभिशप्त हो चला है। सिकलीगर समाज के घरों और हथियार बनाने के कारखानों में पहली दफा कैमरा और कलम पहुंचे तो हतप्रभ रह गए। वहां तो एक नया ही संसार था। सिकलीगर समाज के जवानों से किशोर उम्र के हथियार बनाने वाले थोड़े से कबाड़ से स्टार और स्मिथ वेसन जैसे शानदार हथियारों की हूबहू नकल तैयार कर देते हैं। उनकी कारीगरी का नमूना देखते ही बनता है। हथियारों के इस कुटीर उद्योग पर विवेक अग्रवाल की खोजी रपट।
टायरों से निकले तार से पिस्तौल के मैगजीन का स्प्रिंग बन जाए। साईकिल के अगले पहिए का चिमटा मैगजीन में तब्दील हो जाए। कारों के स्टीयरिंग से बन जाएं अगर रिवाल्वरों की बैरल और अगर एक्रीलिक शीट से बन जाएं पिस्तौल के दस्ते तो इसे कबाड़ से चमत्कार ही कहा जा सकता है। लेकिन यह सच है। देश के बहीचों-बीच स्थित सबसे शांत और अनोखा राज्य है मध्यप्रदेश। इसकी जमीन पर एक तरफ जहां कपास से गेहूं तक की फसलें उगती हैं, वहीं मौत की फसल भी उगती है। ये हथियार बनते हैं पहाड़ों पर बने छोटे-छोटे गांवों के इन झोपड़ों में, जहां गरीबी ने स्थाई बसेरा कर लिया है।
इन सिकलीगरों की बनाई पिस्तौल देख कर आप दांतों तले अंगुली दबा लेंगे। ये हथियार आला दिमाग और हुनरबाज हाथों के शानदार नमूने हैं। उन्हें देख कर कोई भी हैरान न हो, ये तो संभव ही नहीं है। ये पिस्तौलें किसी सांचे या डाई से नहीं बनती हैं, उन्हें तो बस हथौड़े और रेती से घिस कर बनाया जाता है। इस पिस्तौल को बनाने के पीछे एक आला दिमाग काम करता है।
दीवान सिंह कहते हैं कि उनके लोगों के पास हुनर खूब है लेकिन आज यह अवैध हो गया है। वे कहते हैं, “हम सरकार से बार बार मांग करते आए हैं कि हमें काम दें। हमें ऐसे कारखानों में लगा दें, जहां हथियार बनते हैं। हमारे लोग शिक्षित भले न हों, वे अपने हुनर में किसी इंजीनियर से भी बेहतर हैं।”
कबाड़ में बीस या तीस रुपए के जंग लोहे से बना देते हैं सिकलीगर 7 से 30 गोलियां समाने वाली मैगजीन की शानदार स्वचालित पिस्तौल। और हां, ये पिस्तौलें भी उतनी ही कारगर, और उतनी ही मारक हैं, जितनी एक कारखाने से बन कर निकली पिस्तौल होती है।
हम यह देख कर दंग रह गए कि सिकलीगरों के लिए साईकिल के अगले पहिए का चिमटा बन जाता है पिस्तौल की मैगजीन।
यह देख कर हम दांतों तले अंगुली दबाने के मजबूर हो गए कि ट्रकों और बसों के टायरों में लगने वाले तार बन जाते हैं, इन मैगजीनों की स्प्रिंग।
यह भी एक अजूबा ही था कि कट्टों और रिवाल्वरों की नलियां बन जाती हैं, गाड़ियों के स्टीयरिंग के पाईपों से, जो कि उतनी ही असरदार और मजबूत होती हैं, जितनी की फैक्ट्री मेड पिस्तौल की।
यह भी एक चमत्कार से कम न था जब देखा कि टूटी-फूटी एक्रीलिक शीट्स से बन जाते हैं पिस्तौलों और रिवाल्वरों के दस्ते।
और सबसे बड़ा अजूबा यह देखा कि सड़क से बिना हुआ पुराना जंग लगा लोहा उठा कर भट्टी में गला और ठोंक-पीट कर ये सिकलीगर बना लेते हैं पिस्तौलों, रिवॉल्वरों और हेंडगन्स के पुर्जे।
जवाहर सिंह के मुताबिक उनके हथियार महज 50 से 100 रुपए की कीमत में ही तैयार हो जाते हैं। उन्हें देख कर कोई भी ये नहीं कह सकता है कि वे कारखाने में नहीं बने हैं। जवाहर सिंह दावा करते हैं कि अगर कोई एके 56 लाकर दे जाए तो तीन महीने में वे दो एके 56 देंगे। आप अपनी असली पहचान कर बाते दें तो हम अपनी बनाई एके 56 रायफल का पैसा नहीं लेंगे। वे अपनी कारीगरी से खुद ही इतना अभिभूत हैं कि कहते हैं, “हम तो लोहे में जान डाल देते हैं। बस फर्क इतना है कि ये जान भरा हुआ लोहा किसी की जान ले सकता है।”
इन सिकलीगरों की हथियार बनाने में महारत को देख कर कोई भी दंग रह जाएगा। वे तो इसे बड़ी आसानी से कला का दर्जा देकर चुप हो जाते हैं। सिकलीगरों के हथियार बनाने के तरीके पर एक ही कहावत लागू होती है – आवश्यकता ही आविष्कारों की जननी है। उनकी आवश्यकता है जीवन यापन के लिए कुछ धन कमाना, जिसके लिए वे ये हथियार ही बना सकते हैं।
आगामी अंक में पढ़ें व देखें – आदिवासी बने हथियार कैरियर
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