Books: खेल खल्लास: 16 मुठभेड़ों का सोलह आने सच
जो कर गया, वो घर गया,
जो डर गया, वो मर गया।
मुंबई के गिरोहबाजों और उनके सरगनाओं, सेनापतियों, सिपहसालारों, किलेदारों, फौजदारों, जत्थेदारों, सूबेदारों, सुपारी हत्यारों, प्यादों तक पूरी फौज कैसी खामोशी से अपना काम करके निकल जाती है, यह देख उन दिनों बड़ा अचरज होता था, जिन्हें 80 या 90 का दशक कह सकते हैं।
आज यह सोचना भी बेकार ही लगता है। कारण है दाऊद इब्राहिम, छोटा राजन, अबू सालेम, अरुण गवली, बाबू रेशिम, माया डोलस, हाजी मस्तान, वरदराजन मुदलियार, करीम लाला, यूसुफ लाला, सुखुरनारायण बखिया, अमीरजादा पठान, आलमजेब पठान, फीलू खान जैसे नामों के बीच कुछ की मौत इस कदर बेहिस रही कि याद आता है, तो अच्छा नहीं लगता है।
अपराध जगत में यह कहावत आम है – जो आग से खेलेंगा, वो आग में मरेंगा।
सच है यह।
पूरा-पूरा सच। गिरोहबाज और उनके सहयोगी, जो पिस्तौलों और चाकुओं से लोगों की जान लेते हैं, अंततः वे मारे भी उन्हीं हथियारों से ही जाते हैं। जान लेने-देने के खेल में खिलाड़ियों के बीच बस वक्त का ही फर्क होता है। कब-किसकी मौत आएगी, बस उतना ही अंतर होता है।
मौत कैसी भी हो, वह दुख देकर ही जाती है। जो मर जाते हैं, वे तो बस मुक्त हो जाते हैं। जो पीछे बचे रहते हैं, वे सोग मनाते हैं। गिरोहबाजों की मुठभेड़ों में मौत पर परिवार और रिश्तेदार – दोस्त – यार – गिरोह के संगी-साथी दुख से भरे होते हैं, दूसरी तरफ पुलिस और उनके शिकारों के परिजन जश्न मनाते हैं। मुठभेड़ से कुछ को मिलता है मान-सम्मान, पदक, तरक्की लेकिन दूसरी तरफ माता-पिता हैरान हैं कि बेटे को कितना समझाया लेकिन न माना, आज देखो कैसी मौत मरा। हमें भी कैसी हिकारत दे गया समाज में।
मुठभेड़ों में जो मारे गए, वे बस खत्म हो गए।
इस पुस्तक में यह समीक्षा या विश्लेषण नहीं है कि मुठभेड़ सच्ची थीं या गलत। इतनी बात सामने रखी है कि ये कौन थे और क्यों थे। उनकी जिंदगी की असलियत क्या थी। वे क्यों अपराध के दलदल में जा धंसे। अंततः उनका अंत एक ही था – पिस्तौलों से निकला पिघला सीसा, जो जिस्म में पैबस्त हुआ, तो जान बाहर निकाल कर माना। किताब में 16 कहानियां हैं, जो हर गिरोहबाज का पूरा सच उधेड़ कर सामने रखती हैं।
यह पुस्तक समाज के उन ‘स्खलित नायकों’ की सच्ची दास्तान पेश करती है, जो मुठभेड़ों में भले ही हताहत हुए, उनके जोश व हिम्मत के आगे दुश्मन सदा पस्त रहे। वे गोलियों की भाषा जानते थे, वही बोलते थे। इसीलिए वही भाषा उनकी समझ में भी आती थी। वही सुनना भी पसंद करते थे। वे इसी के साथ जीते हैं, इसी के साथ मरते हैं।
मुंबई माफिया में किसी की मौत पर कहा जाता है – इसका तो खेल खल्लास हो गया। ये ही दो शब्द इस किताब के लिए भी मुफीद हैं – खेल खल्लास।
मुंबई माफिया में यह सदा चलता है, आगे भी चलेगा – कभी खेल बनेगा तो कभी बिगड़ेगा। कभी कोई बचेगा – तो कभी किसी का हो जाएगा – खेल खल्लास।
अध्याय
मुंबई के गिरोहबाजों और उनके सरगनाओं को जब मुंबई पुलिस ने चुन-चुन कर मार गिराया, तो उनके बीच कोई भेदभाव न किया। जिन सैंकड़ों गुंडों को पुलिस की गोलियों ने मार गिराया, सबकी जानकारी एक किताब में समेटना संभव नहीं। खेल खल्लास में 16 की दास्तान हैं।
क्र. | जिनका हुआ खेल खल्लास |
एबी कंपनी का ‘कल्लू मामा‘ : अनवर गनी शेख उर्फ अन्नू उर्फ मामा | |
झोपड़पट्टी दादा से गिरोहबाज तक : अनवर यूसुफ शेख उर्फ मामजी उर्फ अण्णा उर्फ अनवर बादशाह | |
‘काऊंटर स्पेशलिस्ट‘ के लिए खौफ : आरिफ इस्माईल जावेद उर्फ आरिफ कालिया | |
वरदा का माल लूटने वाला दुस्साहसी : एंथोनी वीरस्वामी जॉन उर्फ कालिया एंथोनी | |
रक्त पीने वाला हत्यारा : काकूलवारापू वेंकट रेड्डी उर्फ वेंकटेश बग्गा रेड्डी उर्फ बाबा रेड्डी उर्फ माइकल फर्नांडो उर्फ अजीज रेड्डी | |
काली दुनिया का पागल : गोपाल शेट्टी उर्फ येड़ा गोपाल : | |
आतंक का दूसरा नाम डीके : दिलीप कुलकर्णी उर्फ डीके भाई | |
रूपसी के रूप में मौत का परकाला : नितेश कसारे उर्फ चिकना | |
एमआर के वेश में शूटर : मदन चौधरी उर्फ मेंटल | |
बगावत का अंजाम : माया डोलस | |
एसटी का छोटा भाई एचटी: मो. शेख मो. रफीक उर्फ रफीक डिब्बावाला उर्फ बादशाह उर्फ हरीश ठाकुर | |
बहन की शादी ने बनाया गिरोहबाज : मोहम्मद शफी शेख उर्फ इकबाल मोहम्मद गनी शेख उर्फ पुराना मंदिर | |
क्रिकेट का दीवाना बना हत्यारा : योगेश पराडकर उर्फ परड्या | |
सिपहसालार को चुनौती देने वाला फौजदार : रज्जाक कश्मीरी | |
मुहब्बत का मारा माफिया में : रमेश कृष्णा सुर्वे उर्फ रम्या बटलर | |
‘साधु‘ जिसे मिला मुठभेड़ में ‘निर्वाण‘ : सदानंद नाथू शेट्टी उर्फ साधु शेट्टी |
एबी कंपनी का ‘कल्लू मामा‘: अनवर गनी शेख उर्फ अन्नू उर्फ मामा
अंडरवर्ल्ड में रक्तपात सदा चलता है। अनवर भी इसका हिस्सा था। वह अली बुदेश गिरोह का मैनेजर था ही, खुद भी मैटर बजाने सड़कों पर उतरता था। साथी क्यों उसे ‘मामा’ कहते थे, कैसे काले संसार का हिस्सा बना?
अली बुदेश गिरोह के लिए सुपारी हत्याएं, हफ्तावसूली, अपहरण करने में माहिर अनवर दर्जन भर गुंडों के साथ सालों तक रक्त की होली खेलता रहा। उसका काम था डर परोसना – डर बेचना।
अनवर और उसके दोस्तों ने बड़े चाव से ‘सत्या’ फिल्म देखी। सबको लगा कि सत्या के ‘मामा’ जैसा एक ‘मैनेजर’ उनके साथ भी है। वैसे ही काम करता है। बस, वे भी अनवर को ‘मामा’ कहने लगे। अनवर साथियों को ‘मामा’ की तरह भाषण भी पेलने लगा। वो कहता था, ‘जो भी बनाएगा, खुद का काम बनाएगा।’
पूर्व डीजीपी डी. शिवानंदन के मुताबिक पूछताछ में अनवर मानता न था कि वह बुदेश गिरोह से है। उन्हें याद आया कि अनवर का एक दांत नकली है। जब अनवर के नकली दांत निकलवाए, तो वह टूट गया। अब तो अनवर दनादन सच उगलने लगा।
22 दिसंबर 2001 को अपराध शाखा के दस्ते ने अंधेरी (प) में नवरंग टॉकीज के पास देर रात अनवर को सदा के लिए सुला दिया। इसके लिए उसे एक गोली दी, जो पीतल- जस्ते से बनी थी। गुंडों का इलाज मुंबई पुलिस इसी गोली से करती है। लिंक
झोपड़पट्टी दादा से गिरोहबाज तक: अनवर यूसुफ शेख उर्फ मामजी उर्फ अण्णा उर्फ अनवर बादशाह
मुंबईया झोपड़पट्टी दादा अमूमन गिरोहबाजों के संरक्षण में काम करते हैं। सरगनाओं को बदले में मोटा हफ्ता देते हैं। इसके बावजूद माफिया का काम करने से बचते हैं। अनवर बादशाह का मामला उलटा है। अनवर की जिंदगी के हर उतार-चढ़ाव की कहानी है।
पुलिस हिस्ट्री शीट के मुताबिक अनवर बादशाह 32 साल की उम्र में दर्जन भर हत्याओं का आरोपी बना। 2000 में पुलिस गोलियों का शिकार बनने तक शिवसेना के तीन शाखा प्रमुखों की हत्याएं कर चुका था।
अनवर को ‘बादशाह’ उर्फ नाम कई राजनीतिकों को मारने के बाद मिला। वो कहता था कि एक इलाके में एक ही ‘बादशाह’ होगा, दूसरों को हटा दो, या खत्म कर दो। अनवर ने दूसरा रास्ता चुना – ‘खत्म’ करने का।
पुलिस ने अनवर की मौत के बाद भी उसके परिवार पर नजर रखी क्योंकि वे अंडरवर्ल्ड से जुड़े रहे। वे नहीं समझे कि इस खेल में कभी किसी की जिंदगी संवरती नहीं, यहां तो होता है बस खेल खल्लास। लिंक
‘काउंटर स्पेशलिस्ट‘ के लिए खौफ: आरिफ इस्माईल जावेद उर्फ आरिफ कालिया
कुख्यात, सनकी, दीदावर, खतरनाक गुंडे आरिफ कालिया से पुलिस अधिकारी भी डरते थे। दो मुठभेड़ विशेषज्ञों को आरिफ के डर से बरसों सुरक्षा में रहना पड़ा, जो अमूमन इंस्पेक्टरों को नहीं मिलती है।
अंडरवर्ल्ड के कुख्यात गुंडे आरिफ कालिया ने अपने भाई सादिक कालिया की मुठभेड़ में मौत पर नाराज होकर हलफ उठाया कि इंस्पेक्टर दया नायक और प्रदीप शर्मा सभी पुलिस वालों को मारेगा, जो मुठभेड़ में शामिल थे। आरिफ कसम पूरी कर पाया या नहीं,
कालिया बंधुओं ने दर्जनों हत्याएं कर अंधियाले संसार में ऐसा आतंक पैदा किया कि उनके फोन करने भर से पैसा बरसने लगता। वे हफ्तावसूली में न थे लेकिन जेब खाली होने पर अपने आतंक का इस्तेमाल कर लेते थे। लिंक
वरदा का माल लूटने वाला दुस्साहसी: एंथोनी वीरस्वामी जॉन उर्फ कालिया एंथोनी
एंथोनी कालिया ऐसा क्रूरकर्मा था कि उसका नाम आतंक का पर्यायवाची था। वो जितना खतरनाक था, जैसी उसकी हरकतें थीं, ठीक वैसा ही उसका अंत हुआ। अदालत के बाहर पुलिस ने घेर कर कर दिया उसका खेल खल्लास।
एंथोनी कालिया न ये देखता था कि कौन कितना बड़ा गिरोहबाज है, कौन कितना बड़ा उद्योगपति या नेता है। एंथोनी कालिया तो बस कालिया था, जो किसी से भी उलझने की ताकत रखता था।
जिस दिन फिल्म कालिया आई और अमिताभ बच्चन कालिया के किरदार में जेल तोड़ कर भागते दिख रहे थे, उसी दिन अकोला जेल की दीवारों के पीछे गिरोहबाज कालिया भी वही कर रहा था। उसे कालिया नाम जेल फरारी कांड से ही मिला था। असली नाम एंथोनी वीरस्वामी जॉन था।
कालिया ने सबसे बड़े डॉन वरदा भाई का माल भरा ट्रक दक्षिण मुंबई इलाके से लूटा। अंडरवर्ल्ड भी कालिया एंथोनी के कारनामे से दहल गया। वरदा ने कालिया को माल के बदले 4 लाख रुपए चुकाए।
जब कालिया का अंत आया तो कोई काम न आया। न संगी-साथी… न हथियार… न वकील… न शातिराना हरकतें…
कालिया को पुलिस ने अदालत में मारा। कालिया भी काले संसार की अतल कालिमा में काले कारनामों समेत जा मिला। उसका खेल भी वैसे ही खत्म हुआ, जैसा अंडरवर्ल्ड के काले प्रेतों का हमेशा होता है। वह भी उसी खेल का खिलाड़ी बना, जिसे कहते हैं – खेल खल्लास। लिंक
रक्त पीने वाला हत्यारा: काकूलवारापू वेंकट रेड्डी उर्फ वेंकटेश बग्गा रेड्डी उर्फ बाबा रेड्डी उर्फ माइकल फर्नांडो उर्फ अजीज रेड्डी
राजन गिरोह का सुपारी हत्यारा…
20 से अधिक हत्याएं कर चुका हत्यारा…
रक्त पीने व कच्चा मांस खाने वाला हत्यारा…
अजीज रेड्डी इंसानी जिस्म में छुपा ‘ड्रैकुला’ था, जो रक्त पीता और कच्चा मांस खाता था।
अब तक जितने क्रूरकर्मियों पर कलम चलीं, इसके मुकाबले का कोई न था। अब तक जितने गुंडे-हत्यारे किसी पुलिस वाले ने देखे थे, वह सबसे अलग था। अब तक जितने ‘भाई लोक’ के साथ गुंडों ने दिन गुजारे, उतना भयभीत न हुए, जितना इससे। क्यों? कैसे?
किसी कलमनवीस ने ऐसा जिंदा किरदार न देखा-न सुना। दो-चार पुलिसकर्मी भी उससे भिड़ने की हिम्मत नहीं करते थे। गुंडे उसके साथ एक ही कमरे में रहने के नाम भर से कांपते थे। यह था वेंकटेश बग्गा रेड्डी उर्फ अजीज रेड्डी।
रक्त पीने का एक खास तरीका रेड्डी ने ईजाद किया। वह भात में दाल की तरह जानवरों का खून मिला कर खाता रहा है। वेंकटेश ‘काली माता’ का भक्त था। पीने के लिए पशु रक्त न मिले तो वेंकटेश अपने हाथ की नसें काट लेता था।
पुलिस के मुताबिक अजीज रेड्डी ने फिल्म तारिका मनीषा कोईराला के सचिव देवानी की हत्या में शामिल नरेंद्र और भावेंद्र को मारा था।
हैदराबाद में अजीज रेड्डी ने मुंबई माफिया की तर्ज पर बी-कंपनी की स्थापना अप्रैल 2004 में की तो पुराने साथियों आसिफ, छपाला श्रीनू जैसे अपराधियों को साथ लिया।
सनकी निर्लज्ज हत्यारा रेड्डी खुद को भगवत भक्ति में सबसे ऊपर मानता था। गुनाह बख्शवाने दिन-रात मंदिरों के चक्कर जरूर लगाता लेकिन ‘हत्या करना’ भी कभी नहीं छोड़ा।
माहिम में शीतला देवी मंदिर के बाहर फरवरी 1998 में रेड्डी को उसका प्यार याने शहनाज मिली। इश्क में अंधे रेड्डी ने धर्म परिवर्तन कर नया नाम रखा ‘अजीज’, उसके बाद किया निकाह।
अजीज रेड्डी को खुश व शांत रखने के लिए पुलिस वाले भी हिरासतखाने में खाने के लिए कच्चा मांस देते थे। रेड्डी मांस के लोथड़े पहले चूसता ताकी कच्चा खून मिल सके। फिर चबा-चबा कर मांस खाता था।
अजीज को मांस खाते – लहू पीते देख खतरनाक हत्यारे भी सिहर उठते। वे तुरंत कोठरी बदलने की मांग करते। उन्हें डर लगता कि यह भयानक रक्तपिपासु सोते में मार कर उनका मांस खा जाएगा।
पुलिस अधिकारी मानते थे कि रेड्डी को रोकना यमराज के हाथों में है, उसे कानून रोक नहीं पाएगा। यह यमदूत भी यमराज रूपी पुलिस की गोलियों का शिकार बना। खून से प्यास बुझाने वाले खूनी खिलाड़ी का हो गया खेल खल्लास। लिंक
काली दुनिया का पागल: गोपाल शेट्टी उर्फ येड़ा गोपाल
खतरनाक पागलों सी हरकतों करने वाले गिरोहबाज येड़ा गोपाल से सभी खौफ खाते थे। वह अचानक रोने, अचानक हंसने लगता। एक बार झपट पड़े तो शिकार का बचना नामुमकिन था।
उसके पागलपन के दर्जनों किस्से खूंरेजी के बाजार में सुनाई देते हैं। यही कारण है वह येड़ा गोपाल नाम से पहचाना जाता है। उसकी सनक और पागलपन के पूरे किस्से हैं।
मुंबई के सबसे खतरनाक सनकी गुंडे का नाम अपराध शाखा अफसरों से पूछें तो येड़ा गोपाल ही बताएंगे। होटलवालों से हफ्तावसूली हो तो गोपाल बिल्कुल ‘येड़ा’ नहीं लगता था।
येड़ा गोपाल, तस्कर महेश ढोलकिया का कार चालक था। तीन ढोलकिया भाईयों में से दो गिरोह युद्ध में मारे जा चुके हैं।
येड़ा गोपाल का नाम अंधियाले संसार में तब चमका, जब सुभाष सिंह ठाकुर ने साथियों समेत विरोधी सरगना अरुण गवली के मुख्यालय दगड़ी चाल पर एके-47 रायफलों से 1988 में हमला किया था।
फिर एक पागल का दारुण अंत होता है…
फिर एक साए का विलोप अंधियारे में होता है…
फिर एक गुंडे की कहानी अचानक खत्म हो जाती है…
यही हुआ येड़ा गोपाल के साथ भी…
इं. प्रदीप सूर्यवंशी ने गोपाल को मुठभेड़ में मार गिराया। उसका नाम मानवता के खिलाफ अपराधों के इतिहास में दर्ज रह गया। सबका गेम करते-करते हो गया येड़ा गोपाल का भी खेल खल्लास। लिंक
आतंक का दूसरा नाम डीके: दिलीप कुलकर्णी उर्फ डीके भाई
मुंबई अंडरवर्ल्ड में डीके नाम आतंक का पर्याय था। गवली गिरोह का सबसे विश्वस्त सिपहसालार खतरनाक नाम है। डीके भाई के खिलाफ हफ्तावसूली के 125 व हत्या के 4 मामले दर्ज हुए थे।
डीके के नाम कुछ ही मामले दर्ज हुए हैं। हजारों मामले लोगों ने डर के मारे दर्ज ही नहीं किए। न जाने कितने करोड़ों रुपए डीके के नाम पर उगाहे गए। न जाने कितने लोग डीके के नाम पर मारे गए। किसी के पास सही गिनती नहीं है। कैसा था डीके, कैसी थी उसकी कहानी?
सदा मामा, गणेश भोंसले वकील, बंड्या मामा जैसे गवली गिरोह के सिपहसालार व सेनापति की मुठभेड़ों में मौत के बाद ऊपरी स्तर की जगहें खाली होने पर डीके गिरोह में ऊपर आया।
मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार का डीके, दगड़ी चाल के करीब रहता था। अंधियारे संसार में उसका गुरु आबाजी शेंती उर्फ माली था। डीके 1988 में रक्त के दलदल में आया तो तूफान की तरह छा गया।
डीके मुठभेड़ में मारा गया। आतंक का एक और अध्याय खत्म हुआ। दगड़ी चाल में मातम छा गया लेकिन बाहर बहुतों ने खुशियां मनाईं। यही होता है जब इक काला प्रेत खुद शिकार बनता है। लिंक
रूपसी के रूप में मौत का परकाला: नितेश कसारे उर्फ चिकना
नितेश कसारे के काम का तरीका अन्य अपराधियों से अलग था। उसकी तरह काम करना सबके बूते का न था, न कोई ऐसा करना पसंद करता। यह उन्हें बेइज्जती लगता था। ऐसा क्या करता था नितेश?
अपराध स्थल की जानकारी जमा करने के लिए नितेश लड़की के रुप में जाता। लोगों को पता न चलता कि जिस खूबसूरत लड़की को भटकते देख रहे हैं, उसकी गोरी चमड़ी के पीछे इरादे कितने काले हैं।
दिखने में खासा खूबसूरत और गोरा होने के कारण गिरोह के सदस्य नितेश को ‘चिकना’ भी कहते थे। उसकी चिकनी खाल के पीछे कितना बड़ा दरिंदा छुपा था, उसकी तफसील हेतु पढ़ें – खेल खल्लास।
नितेश को हरीश-जतन डकैत गिरोह दो लाख रुपए महीना वेतन महीने में चार हिस्सों में करके देता था। जब कुछ समय तक पैसा न मिला तो नितेश ने गिरोह छोड़ कर फ्रीलांस काम शुरु कर दिया।
एक पुलिस दस्ता दो महीने नितेश के पीछे पड़ा रहा। पुलिस वालों को नितेश महिला रूप में चकमा देता रहा।
एमआर के वेश में शूटर: मदन चौधरी उर्फ मेंटल
एक ‘देसी’ गिरोहबाज जो ‘विदेशी’ गिरोह सरगनाओं को चुनौती देता रहा कि हिम्मत है तो भारत आकर मुकाबला करें। उसके वाग्बाणों के निशाने पर राजन व शकील दोनों रहे।
मदन चौधरी किसी से भिड़ने के पहले सोचता न था। वह “पहले करने – बाद में सोचने” वाली फितरत का गुंडा रहा है।
मदन चौधरी का आपराधिक गुरु गवली था। मदन ने गवली से नाता तोड़ सुभाष सिंह ठाकुर का हाथ थामा। गवली से दूर होने का कारण क्या था?
मदन जब ‘काम बजाने’ जाता, शानदार पैंट-शर्ट, टाई, सूट-बूट पहनता। चमड़े का नफीस बैग लेता। अपनी सुंदरता व लंबे कद का फायदा उठाते हुए दवा कंपनी का एमआर रुप धरता। उसके बैग में जीवनदायी दवाएं नहीं, मौत बांटने वाले ‘कैप्सूल’ याने ‘गोलियां’ होती थीं।
जिद, कठोरता, धुन के पक्के मदन को एसटी गिरोह में ‘मेंटल’ कहते थे। मुंबईया बोलचाल में मेंटल का मतलब सनकी होता है।
मदन को इं. प्रफुल्ल के विशेष दस्ते ने मुठभेड़ में मार गिराया। मदन की मौत ने एक बार फिर साबित कर दिया कि जो आग से खेलेगा, वो आग ही उसे लील जाती है – याने उसका भी होगा एक न एक दिन खेल खल्लास। लिंक
बगावत का अंजाम: माया डोलस
डी-कंपनी के बागी सुपारी हत्यारे व निशानची माया डोलस को चार साथियों समेत लोखंडवाला की एक इमारत में मार गिराया, तो हाहाकार मच गया। इस खूनी मुकाबले में दो अफसर भी घायल हुए थे। माया की भीषण मुठभेड़ और मौत जुड़े तमाम रहस्य जानने के लिए पढ़ें – खेल खल्लास।
पुलिस को माया डोलस की टिप किसने दी? क्या माया के पास 27.50 लाख रुपए थे? अगर थे तो बरामद क्यों न हुए? क्या माया को मारने की सुपारी दाऊद ने पुलिस को दी? क्या वाकई माया बागी हो गया था?
पुलिस माया को गिरफ्तार करना तो चाहती थी लेकिन हर बार नाकामयाब रही। उनका हर जाल और चाल, माया की ‘माया’ के आगे कट जाता। माया का पैसा और खौफ, दोनों ही उसे बचाए हुए थे।
कहते हैं माया की उद्दंडता और स्वच्छंदता से दाऊद बुरी तरह भन्ना गया था। उसकी मनमानी से गिरोह में गलत संदेश जा रहा था। इसके तुरंत बाद हो गया माया का मुठभेड़ में खेल खल्लास।
दाऊद ने एक बार माया से कहा कि पुलिस से बचने के लिए कुछ दिन वसई-विरार में भाई ठाकुर के साथ रहे। माया को यह बात रास न आई। वह किसी के नीचे काम नहीं करना चाहता था। उसने हुक्मउदूली की। यह बात दाऊद को रास न आई। लिहाजा हो गया माया का खेल खल्लास।
एसटी का छोटा भाई एचटी: मो. शेख मो. रफीक उर्फ रफीक डिब्बावाला उर्फ बादशाह उर्फ हरीश ठाकुर
मो. रफीक से रफीक डिब्बावाला तक का सफर, 20 वर्ष की उम्र से शुरू होकर 37 साल में खत्म हो गया।
जेबकतरे भाई और बारबाला बहन की तरह विदेशी वस्तुओं के पीछे रफीक भी दीवाना था। तीनों जल्द अमीर होने के नुस्खे तलाशते थे। एक ने जेबतराशी के लिए ब्लेड थामी, दूसरे ने हफ्ताखोरी के लिए पिस्तौल, तीसरे ने कमाई हेतु प्याले-सुराही। मकसद एक ही था – पैसा।
एसटी गिरोह के सेनापति मदन चौधरी की मुठभेड़ में मौत के बाद सेनापति पद पर रफीक डब्बावाला काबिज तो हुआ लेकिन पैसे की हवस ने उसे भी यमलोक पहुंचा दिया।
जो सदस्य गिरोह से अलग होते, उन्हें रफीक हलाक कर देता। रफीक ने कभी किसी पर भरोसा नहीं किया। वह हमेशा अकेले काम करता था, खुद योजना बनाता, खुद अंजाम तक पहुंचाता। इसी से पुलिस को उसे नहीं पकड़ पाती थी।
2001 में रफीक ने अली-एसटी के इशारे पर फिल्मकार राकेश रोशन पर हमला किया तो पुलिस पंजा झाड़ कर उसके पीछे पड़ गई। क्यों किया रफीक ने हमला? लिंक
बहन की शादी ने बनाया गिरोहबाज: मोहम्मद शफी शेख उर्फ इकबाल मोहम्मद गनी शेख उर्फ
अंडरवर्ल्ड के फिल्मों से पुराने संबंध हैं। फिल्मी ग्लैमर अपराधियों को हमेशा खींचता है। फिल्मी लोग भी रुपहली दुनिया छोड़ काले संसार में शामिल हुए हैं। फिल्मों में काम कर रहे मोहम्मद इकबाल शेख के साथ भी ऐसा ही हुआ। वे क्या हालात थे, जिनके कारण मोहम्मद अंडरवर्ल्ड में आया?
मुंबईया मसाला फिल्म के एक निर्देशक की निगाह मोहम्मद इकबाल शेख पर पड़ी। उसने राक्षसी काया के स्वामी मोहम्मद का इस्तेमाल भुतहा फिल्म ‘पुराना मंदिर में किया। इससे मोहम्मद की अपराध जगत में साख बन गई। इसी से ‘पुराना मंदिर’ नाम उसे मिला।
मुंबई पुलिस के एक अधिकारी बताते हैं कि मोहम्मद इकबाल ने निर्माता-अभिनेता आमिर खान की फिल्म ‘मेला’ में भी छोटी भूमिका की थी।
चेहरा छुपाने वाले गिरोहबाजों से मोहम्मद अलग था। वह अंडरवर्ल्ड के गोपनीयता बरतने और चेहरा छुपाने के नियम का खुलेआम उल्लंघन करता रहा, मजे से फिल्मों में काम करता रहा।
मोहम्मद इकबाल गोवंडी झोपड़पट्टी में रहता था। उसे क्रिकेट खेलने में बड़ा मजा आता था, कसरत का भी शौकीन था। हर वक्त वर्जिश से मोहम्मद का शरीर बढ़िया बना रहता था।
फिल्मों में खलनायक हमेशा नायक से पिटते हैं। मो. इकबाल परदे का अफसाना और असली जिंदगी की दास्तां में फर्क नहीं कर पाया। मोहम्मद के पापों का घड़ा भर गया, तो एक दिन छलक भी गया।
इकबाल मोहम्मद शफी शेख उर्फ इकबाल मोहम्मद गनी शेख उर्फ पुराना मंदिर पुलिस मुठभेड़ में मारा गया तो पता चला कि अंडरवर्ल्ड में आने की कहानी बड़ी फिल्मी थी। मोहम्मद को बहन की शादी के कर्ज ने अपराध जगत में घसीटा था। लिंक
क्रिकेट का दीवाना बना हत्यारा: योगेश पराडकर उर्फ परड्या
योगेश की कहानी पर एक मसाला फिल्म बन सकती है। वह भी ढेरों उतार-चढ़ाव और ऐसी जिंदगी के साथ अंडरवर्ल्ड में आया, जो बिल्कुल अलग है। कुछ अपराधी किरदारों से भले ही कुछ हिस्से मिलते लगें, फिर भी अलग रवानी रखती है।
क्रिकेट का योगेश पराडकर को नशा था। बल्ले से खेलने वाले हाथों ने कब बंदूक थाम ली, किसी को पता न चला। जब तक समझते, देर हो चुकी थी। वह आया, चला गया। उसका जाना, ठीक वैसा ही था, जैसा गिरोहबाजों का तय है।
क्रिकेट योगेश की जिंदगी था। इस दीवानगी ने उसे अपराध में झोंका। लोग कहते हैं कि उसे अपराध की दुनिया में उतारने वाला कांजूर विलेज का सबसे खतरनाक गिरोह सरगना अशोक जोशी था।
योगेश पराडकर हमेशा किसी को कानों-कान खबर न पड़े, ऐसे काम करता था। वह अकेले ‘काम’ करता। शिकारों पर अकेले हमला करता। साथियों के बिना हत्याएं करता था।
योगेश के आतंक का फायदा उसकी मौत के बाद भी साथी गिरोहबाज उठाते रहे। आतंकफरोशी का खेल योगेश के नाम के साथ चलता रहा, भले योगेश का हो गया था खेल खल्लास। लिंक
सिपहसालार को चुनौती देने वाला फौजदार: रज्जाक कश्मीरी
कोई सोचे कि वो अजेय है, जिसे चुनौती दे रहा है, कभी न कभी उसे मार गिराएगा, तो खामखयाली भी हो सकती है। रज्जाक कश्मीरी बड़ा चालाक व चुस्त गिरोहाबाज था, इसके बावजूद उसका भी हुआ खेल खल्लास।
अपनी हरकतों से न केवल छोटा शकील, पुलिस की भी आंख में पड़े बाल की तरह रज्जाक कश्मीरी कसकता था। उसने शकील से बगावत कर दी क्योंकि उसके लंगोटिया यार की हत्या डी-कंपनी ने की थी। बदले में कश्मीरी ने खासा कहर ढाया था। कौन था कश्मीरी और क्या था उसका बदला… उसकी अजब दास्तान के है।
रज्जाक कश्मीरी ने 2 साल के वक्फे में राजन के चिरशत्रु छोटा शकील के सात प्यादों-हत्यारों को लुढ़काया। उनके लिए यह अचरज का विषय नहीं जो भूमिगत संसार को देखते-जानते हैं।
अंडरवर्ल्ड में आने के पहले ही रज्जाक कश्मीरी डोंगरी में कोल्ड्रिंक बेचता था। यहीं शकील के सुपारी हत्यारे फिरोज कोंकणी से मिला। कश्मीरी ने कोंकणी के जलवे देखे तो ‘भाई’ बन कर ‘कमाई’ करने के लिए फिरोज के साथ हो गया।
कश्मीरी ने शकील से अकेले लड़ने की बजाए साथ खोजा। शकील के दुश्मनों को दोस्त बनाने के लिए भूमिगत संसार के प्रेतों की सूची खंगाली तो हुसैन उस्त्रा का नाम मिला। कश्मीरी ने उस्त्रा से दोस्ती गांठ ली। शकील को खल्लास करने का ख्वाब देखते–देखते इस खल्लास भाई रज्जाक कश्मीरी का ही हो गया खेल खल्लास। लिंक
मुहब्बत का मारा माफिया में: रमेश कृष्णा सुर्वे उर्फ रम्या बटलर
रमेश सुर्वे क्रिकेटर बनने का सपना लिए मैदान में दिन भर बल्ले से गेंद पीटता पसीना बहा रहा था। कुछ बड़ा कर गुजरने की आकांक्षा में वह कड़ी मेहनत कर रहा था। किसी को पता न था कि यही रमेश ऐसा खतरनाक सुपारी हत्यारा बनेगा, जो रम्या बटलर नाम से पहचाना जाएगा।
रम्या बटलर के बचपन का दोस्त बताता है कि वह शानदार क्रिकेटर था। उसके शाट्स ऐसे खतरनाक थे कि बल्ला पर गेंद लग जाए तो फील्डरों को पता नहीं चलता था कि गेंद कहां गई।
रमेश ने गोरेगांव (पूर्व) के पहाड़ी हाईस्कूल की छात्रा बचपन की मुहब्बत जरीना से दोस्ती की कीमत चुकाई। जरीना के परिजनों ने मुहब्बत ठुकरा दी। रमेश इश्क पाने के दर-दर भटका। स्थानीय गुंडे नंदू मेनन का आश्रय मिला। नंदू ने रमेश-जरीना की शादी कराई, यही उसे अंडरवर्ल्ड में ले गया।
रमेश का नाम बटलर इसलिए पड़ा क्योंकि उसकी उंगलियां छोटी और कटी-फटी थीं जैसी रसोइयों या बटलर की होती हैं। कहते हैं कि छोटा कद से वह ‘बटलर’ कहलाया, जो ‘बटल्या’ का अपभ्रंश है। लिंक
साधु शेट्टी एक ऐसा ‘साधु‘ जिसे मिला मुठभेड़ में ‘निर्वाण‘: सदानंद नाथू शेट्टी
मई 2002 में मुंबई पुलिस मुठभेड़ों के कारण फिर विवादों में घिरी। राजन गिरोह के सिपहसालार साधु शेट्टी को अपराध शाखा के मुठभेड़ विशेषज्ञ इं. विजय सालस्कर ने मारा, जबकी वह आठ सालों से अंडरवर्ल्ड से तौबा कर गया था।
मुंबई की अंधेरी दुनिया के ‘अंगुलीमाल’ साधु शेट्टी को एक ‘बुद्ध’ मिला जरूर, उसके बावजूद पुलिस ने ‘बुद्धू’ बना कर उसे मौत के घाट उतार दिया।
कर्नाटक के मंगलूर शहर में राजनीतिक-सामाजिक कार्य करने वाले साधु शेट्टी ने काले संसार से अपराध शाखा के डीसीपी दीपक जोग से वादा कर कत्लोगारत की दुनिया को विदा कहा था। इसके बावजूद पुलिस ने उसे मुठभेड़ में मारा, इस पर ढेरों सवाल उठे।
साधु कहता था कि मुंबई निवासी दक्षिण भारतीय नागरिकों को शिवसेना परेशान करती है। इन अत्याचारों का बदला लेने की नीयत से वह अंडरवर्ल्ड से जुड़ा था।
डी-कंपनी के कुख्यात सुपारी हत्यारे माया डोलस से साधु की दुश्मनी थी। घाटकोपर में त्रिमूर्ती होटल चलाने वाले साधु ने माया पर हमला किया था। उसकी जान बच गई तो क्या हुआ। जब साधु ने अंडरवर्ल्ड छोड़ मंगलूर जाने की घोषणा की तो किसी ने भरोसा न हुआ। इसे सबने आंखों में धूल झोंकने की कोशिश बता कर खारिज कर दिया।
साधु कभी ‘साधु’ नहीं बना। उसे गोलियों से ही निर्वाण मिलना था। जब उसने मौत का सौदागर बन हत्या का कारोबार शुरू किया, तभी उसके भाग्य में ऐसी ही मौत लिखी जा चुकी थी।’
डीसीपी का मंदिर बनाया डॉन ने: साधु कोलाबा थाने के हिरासत खाने में बंद था। तत्कालीन उपायुक्त दीपक जोग ने अपराध छोड़ने के लिए उसे दो घंटे समझाया। अगले दिन दीपक जोग दिल के दौरे से चल बसे। इसी रात साधु की आत्मा पिघल गई। साधु ने कहा, ‘जोग साहब के रूप में भगवान देखा, उनके पैर छुए। उनकी याद में तीन साल तक दीवाली न मनाने का फैसला नाना कंपनी ने किया।’ 1997 में उसने सायन-ट्रांबे मार्ग पर श्री जोग की याद में ‘सार्इं दीपक मंदिर’ बनवाया था। लिंक