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कमाठीपुरा कथाएं: गिराहक 11: फरिश्ता

यहां पेश कमाठीपुरा की सच्ची कथाएं किताब ‘कमाठीपुरा‘ का हिस्सा नहीं बन पाईं। सभी पुस्तक-प्रेमियों के लिए लेखक विवेक अग्रवाल ने कुछ कहानियां इंडिया क्राईम के जरिए बतौर तोहफा पेश की हैं। आप भी आनंद उठाएं। – संपादक

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फरिश्ता

“तू नई आई है?” ग्राहक के सवाल पर सरला चौंकी।

“हां…” अनमने स्वर में सरला का जवाब आया।

“किदर से?”

“बंगाल…” सरला ग्राहक की पूछताछ से डरने लगी।

“गांव?” ग्राहक ने और खोदा।

“इतना क्यों पूछता है? शादी करेगा क्या मेरे से?” अब सरला ने कमाठीपुरा वाली औरतों का सबसे पुराना जुमला जड़ा।

“तेरी मर्जी हो तो शादी भी करेगा… तू अपनी मर्जी से इधर आई क्या?”

“इस नरक में मर्जी से कौन आता है…” सूखे नल की आखिरी बूंद की तरह सरला की आंखों की कोर पर एक बूंद आंसू बाहर निकलने को तड़प उठा।

“घर जाएगी वापस?” मुन्ना की बात सुन सरला की आंखों में हजारों ख्वाहिशों के सितारे झिलमिला उठे।

“ऐसी मेरी किस्मत कहां…” सरला का जिस्म झुरझरी लेकर शांत हो गया।

“तेरी किस्मत भी काम कर जाए तो? तुझे बाहर निकाल लूं तो?” ग्राहक ने पहेलियां बुझाईं।

“तू जो बोलेगा, मैं करूंगी…” सरला ने उत्साहित होकर दृढ़ता से कहा।

“गांव जाएगी?” ग्राहक ने पूछा।

“वहां कौन मुझे रखेगा!” सरला ने सरल उत्तर दिया।

“अरे तेरा बाप होगा… मां होगी… फेमिली होगी…”

“नहीं, वो मुझे घर में नहीं लेंगे…”

“तो इधर तेरी शादी बना दूं?” ग्राहक ने पूछा।

“किससे?” सरला सशंकित हुई।

“मेरा मौसी का बेटा है, उसके साथ…”

“वो कौन धरम का है?”

“अरे तू धर्म देख के ग्राहक बैठाती है क्या?”

“वो जबरन करती हूं, शादी मन की बात है…”

“तेरी जात का है… लेकिन एक पांव से लंगड़ा के चलता है…”

“शराबी, कबाबी, औरतखोरा नहीं है, तो अंधा भी चलेगा…”

“तो सुन, एक हफ्ते में तुझे निकाल लेगा… आराम से रहना… चकले की बाई से झगड़ा मत करना, नहीं तो तुझे किसी और शहर में बेच डालेगी, फिर तुझे खोजना मुश्किल होगा… सुन, मेरा नाम मुन्ना है…” अब मुन्ना ने सरला को एक पर्ची दी, जिस पर एक टेलीफोन नंबर लिखा है, “कोई तकलीफ आए, तो इस नंबर पे फोन करके मुन्ना को पूछना, तेरा नाम बोलना, मैं तेरे से बात करेगा… बाईजी पूछे तो बोलना, मेरा पक्का ग्राहक है… समझी क्या?”

“समझी…” सरला से झट से सिर हिलाया। सरला ने पर्ची संभाल कर ब्लाऊज में गहरे तक खोंस ली।

“चलता है…” मुन्ना उठ कर निकल गया। सरला के मन में उसके निकलते ही हूक सी उठी। काश कि वो अभी साथ ले जाता।

सरला के सात दिन कैसे कटे, वो ही जानती है। उसे हर दिन – हर पल मुन्ना के आने की आहट सुनाई देती। दिन आता, रात आती, वो नहीं आता। सरला की उम्मीदें टूटने लगीं। वो अदंर ही अंदर रोने लगी, घुटने लगी। आठवां दिन भी बीत गया, मुन्ना नहीं आया। एकबारगी तो उसने सोचा कि मुन्ना की पर्ची पर लिखे फोन नंबर पर बात करे लेकिन डर गई कि घरवाली को पता चला, तो सब गुड़गोबर ना हो जाए। वह चुप रह गई।

नौंवे दिन सुबह 10 बजे पूरा कोठा नीम बेहोशी में सोया पड़ा है, तभी पुलिस की रेड पड़ी। तमाम लड़कियों को पुलिस पकड़ कर सोशल सर्विस ब्रांच में ले गई।

तमाम लड़कियों के बीच बैठी सरला के पास एक महिला इंस्पेक्टर आई, “तू सरला है?”

पुलिस वाली के मुंह से अपना नाम सुन सरला सिहर उठी। उसे लगा कि कयामत आज उसी पर बरसेगी। सरला ने बड़ी मुश्किल से हामी में सिर हिलाया। इंस्पेक्टर ने उसे हाथ थाम कर उठाया, घसीट कर ले चली। कसाई के साथ जाती गाय की तरह सरला चली।

चार कमरे पार करके इंस्पेक्टर एसएसबी ऑफिस में पीछे के एक कमरे में सरला के साथ पहुंची। यहां मुन्ना बैठा है। उसे देख सरला फफक पड़ी।

“रो मत, सब ठीक हो गया…” मुन्ना ने उसे सांत्वना दी।

“तूने देर कर दी तो मुझे लगा कि तू झूठ बोल के गया…” सरला की हिचकियां बंद नहीं हो रही हैं।

“मैं चोर ग्राहक नहीं है… मुन्ना खबरी नाम है मेरा, जो बोलता है, वो करता है… एसीपी साब को कुछ बाहर का काम था, बोल के दो दिन जास्ती लग गया…” मुन्ना ने देरी का कारण बताया।

“तेरे भाई को छोड़, तू मुझसे शादी कर ले…” अपने रहनुमा पर ही सरला बलिहारी हुई जा रही है।

“ना रे बाबा, अपने लाइफ का भरोसा नहीं, एकदम डेंजर में रहता है, तेरे को डेंजर में नहीं डालेगा… तू मेरे भाई से शादी बना, वो तेरे को अच्छा से रखेगा… चल…” मुन्ना बेंच से खड़ा हो गया।

“पुलिस!??” सरला शंकित हुई।

“अरे बाबा, अपना सेटिंग है ना… तेरे लिए तो अक्खा कोठे पे रेड गिराया… बाकी साब लोग देखेंगे, तू चल मेरे साथ…”

कई महीनों बाद सरला ने आखिरकार आजाद हवा में सांस ली। आज उसे महसूस हुआ कि राक्षसों की दुनिया में फरिश्ते भी हैं, बस देर से आते हैं।

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