लोकतंत्र में सर्वोच्च स्तर की अपील
बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध ले……. यह फालतू की बात है। सुबह-सुबह सर्वोच्च स्तर का भाषण सुना। वह यह अपील लिए हुए था कि अभी हमें याद करना है, पिचत्तर साल पहले क्या हुआ था, किस तरह हुआ था, कैसे मारकाट हुई थी…. वगैरह-वगैरह। क्या उसमें शामिल लोग अभी भी भारत में विद्यमान हैं? इसका पता लगाने का समय है।
कई बार ऐसा होता है, जब समय करवट लेता है तो परिस्थितियां बदलती हैं, ऐसा कहा गया है। यह भाषण सुनने के बाद जो लोग बीती बातों और पुरानी गलतियों को भुलाते हुए आगे बढ़ना चाहते हैं, वे अब सपने देखना बंद कर दें। वे भी वैसी ही गलतियां करने के लिए तैयार रहें, जो उस समय भारत विभाजन के समय हुई थी। जगह-जगह हिंसा। इस बार इक्कीसवीं सदी में गौरक्षा का काम अलग चल रहा है।
कैसी स्थिति है? विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की यह हालत? लोगों को देश के भीतर ही लड़वाने की तैयारी चल रही है? वह भी लोगों की जेब पूरी तरह खाली करवाने के बाद? क्या देश के लोग कंगले हैं? एकदम रद्दी हैं? भिखमंगे हैं? दो मुट्ठी चावल और गेहूं और कुछ रुपए ही उनकी कीमत है? देश के फलते-फूलते बाजारों को खाली करवाकर वहां किसका धंधा जमाने की कोशिश हो रही है?
हकीकत यह है कि देश खोखला हो रहा है। इस खोखलेपन को ढंकने के लिए मीडिया पर ढक्कन लगा दिया गया है, लेकिन फिर भी किसी न किसी छेद से वह खोखलापन बाहर दिख जाता है। आसमान में धुआं फैला दिया गया है। लोगों की सोचने-समझने की ताकत खत्म करने की पुरजोर साजिशें जारी हैं। तमाम कंपनियां लोगों के समय पर कब्जा करने पर उतारू है और सरकारी प्रयास भी यही हैं कि लोग देश की वास्तविक परिस्थितियों के बारे में सोच-विचार कम करें। सरकार लोगों को यह याद दिलाने में लगी हुई है कि वह हजार साल पुरानी, पांच सौ साल पुरानी, पचास साल पुरानी गलतियों को सुधारने में लगी है। उसको डिस्टर्ब न किया जाए।
ऐसा लोकतंत्र जहां संसद में बीस मिनट में बीस विधायक ध्वनिमत से पारित होते हैं और जनता पर थोप दिए जाते हैं। सरकार के आठ मंत्री विपक्ष के खिलाफ प्रेस कांफ्रेंस करते हैं। मानसून सत्र के तुरंत बाद स्वतंत्रता दिवस पर लोगों को नफरत की याद दिलाई जाती है कि उसे भूलना नहीं है। यह सब क्यों, किसलिए और किसके इसके इशारे पर हो रहा है? क्या पुलिस और प्रशासनिक सेवाओं के तमाम अधिकारियों ने यही शपथ ली है कि सब कुछ चुपचाप देखते रहें और जनहित के खिलाफ काम करने वाले नेताओं की कठपुतली के रूप में काम करते रहें? क्या कानून, नियम, वगैरह ताक पर हैं?
लोग बेरोजगार और भड़के हुए पहले ही हैं। इस ऊर्जा को नफरत में तब्दील करने का घिनौना प्रयास निंदनीय है। स्वामी विवेकानंद का नाम लेकर अतीत को देखने की बात कहने का क्या मतलब है? अतीत में तो बहुत कुछ हुआ है। सिकंदर से लेकर अंग्रेज तक। सरकार देश की जनता के सामने किस-किसके नाम पर रोने की मजबूरी पैदा करना चाहती है? क्या आपस में लड़ते रहना ही नागरिक धर्म है, जिससे कि देश की संपत्तियां बेचने के क्रम में बाधा न आए? देश किन लोगों के हाथ चढ़ गया है?