हथियारों का कुटीर उद्योग – भाग 9
न पढ़ सके तो बनाएंगे कट्टे
यह पूर्ण सत्य है कि बिना शिक्षा के एक समाज और देश कभी पनप नहीं सकता। इस देश की सबसे बड़ी विसंगति तो यहीं झलकती है कि आजादी के छह दशक बीत जाने के बाद भी समाज का एक बड़ा तबका शिक्षा से वंचित है। जिन इलाकों में जाने के लिए सड़के नहीं हैं, साधन नहीं हैं, वहां तक कैसे निजी कंपनियों के सेल फोन टॉवर पहुंच जाते हैं, कैसे उनके उपभोक्ता सामान बिकने के लिए पहुंच जाते है, तो फिर शिक्षा और अन्य सुविधाएं उन तक क्यों नहीं पहुंच पाती हैं? इस सवाल का जवाब खोजने के लिए इंडिया क्राईम हेतु देश के ख्यातनाम खोजी पत्रकार विवेक अग्रवाल ने सिकलीगरों के उन बीहड़ इलाकों के अंदर तक जाकर पड़ताल की। इंडिया क्राईम की यह बेहद खास और एक्सक्लूसिव रपट –
लाभ सिंह पढ़ने नहीं जाता परंतु कुछ सिकलीगरों ने अपने बच्चों को पढ़ाने की कोशिश की। लेकिन हरेक की पढ़ाई बीच में ही छूट गई क्योंकि फीस भरने के पैसे न थे। इन बच्चों का सपना है कि पढ़-लिख कर कुछ बनें, अपने लोगों के लिए कुछ करें, लेकिन ऐसा संभव नहीं है। वे अंधेरे में जीते हैं, और इक्कीसवीं सदी में भी वहीं मरने को मजबूर हैं।
यह कहानी सिर्फ लाभ सिंह की ही नहीं है कि वह पढ़ने नहीं जाता है और अपने परिवार के साथ में हथियार बनाना सीख रहा है। सिकलीगरों के तमाम बच्चों की कमोबेश यही हालत है। कुछ सिकलीगरों ने अपने बच्चों को पढ़ाने की कोशिश भी की लेकिन फीस न भर पाने की मजबूरी में कोई तीसरी तो कोई आठवीं कक्षा से आगे नहीं पढ़ सका।
सिकलीगर समाज के नेता दीवान सिंह कहते हैं, “पढ़ने जाने के बारे में तो यही कह सकता हूं कि स्कूल की वर्दी चाहिए, किताबें-कॉपी चाहिए, पैसे चाहिएं, वो तो हमारे पास नहीं हैं। हमें कोई आदिवासी का दर्जा भी नहीं है कि ये सब हमें मुफ्त में मिल जाएं। इससे सिकलीगर भी अपने बच्चों को पढ़ा पाते। हमें कोई सहायता भी नहीं मिलती है। लगभग नहीं के बराबर ही बच्चे पढ़ने जाते हैं।”
सिकलीगरों में ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं, लेकिन अफसोस कि उनकी आजीविका के साधन इतने सीमित हैं, कि वे अपने बच्चों को चाह कर भी पढ़ा नहीं पाते हैं।
एक सिकलीगर बच्चा कहता है, “सुबह से स्कूल चले जाएंगे तो काम कब करेंगे। स्कूल तो सुबह से लेकर शाम चार बजे तक लगती है। रात में तो हम काम (हथियार बनाने का) कर नहीं सकते हैं, इसलिए हम दिन में काम करते हैं, स्कूल नहीं जाते हैं।”
दूसरा सिकलीगर बच्चा कहता है, “पढ़ाई-लिखाई होती नहीं है हमसे। मेरे तो माता-पिता नहीं हैं। मजबूरी में मुझे काम-धंधे (हथियार बनाने के) में लगना पड़ा।”
सिकलीगर समाज के इन बच्चों का भी सपना है कि वे पढ़-लिख कर कुछ बनें, लेकिन अपराधी समाज से जुड़े होने का काला दाग गामन पर लगा कर जीते इन बच्चों के लिए भी कुछ कर गुजरना सपने देखने जैसा ही है। बड़ा आदमी बनना इनके लिए फंतासी भर है। उनके लिए तो कट्टे बनाना ही सच है, जीवन भर का सच।