हथियारों का कुटीर उद्योग – भाग 5
न सनम मिला – न विसाले यार
सिकलीगरों के लिए यह तो न सनम मिला, न विसाले यार वाली बात हो गई। चार साल पहले उन्होंने कुछ पुलिस अफसरान के कहने पर समर्पण तो कर दिया, ढेरों वायदे भी ले लिए लेकिन सरकार ने आज तक उनके लिए कुछ भी नहीं किया है। न कॉंग्रेस ने, न भाजपा ने, न पुलिस ने, न किसी कलेक्टर ने… कोई भी इन सिकलीगरों के लिए कुछ नहीं करता है, बस वादे होते हैं, वे खोखले ढोल की तरह बस बजते ही रह जाते हैं। उनसे कुछ हासिल तो होता नहीं है। इंडिया क्राईम के लिए देश के ख्यातनाम खोजी पत्रकार विवेक अग्रवाल ने इस इलाके के अंदर तक जाकर पूरी पड़ताल की। इंडिया क्राईम की यह बेहद खास और एक्सक्लूसिव रपट –
सिकलीकर समाज के साथ सबसे बड़ी विडंबना यह है कि सिक्ख समाज ने एक तरफ जहां उन्हें उपेक्षित रखा है, वहीं सरकार और नेताओं ने भी उन्हें सदा हर सुविधा से वंचित ही रखा। इससे सिकलीगर समाज में खासी नाराजगी व्याप्त है। वे कहते हैं कि समाज हमारे लिए कुछ करता ही नहीं है तो हम भी कब तक उनकी आस में बैठे रहें। हम जैसे-तैसे गुजर-बसर कर तो रहे ही हैं। समाज को अगर खुद में सुधार नहीं करना है तो वह हमें भी सुधारने की कोशिश नहीं कर रहा है।
न तो काँग्रेस के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने कुछ किया, न भाजपा की मुख्यमंत्री उमा भारती ने। तमाम सिकलीगरों को शिकायत है तो हर उस राजनेता और अफसर से जिनके कहने पर सन 2002 में एक हजार हथियारों के साथ 400 सिकलीगरों ने समर्पण किया था। उनसे अफसरान ने वादा किया था कि समर्पण करने पर प्रति व्यक्ति एक लाख रुपए और पांच एकड़ जमीन दी जाएगी।
गुरुद्वारा पंधाना के धर्मगुरू ज्ञानी दीवान सिंह कहते हैं कि अब तो नेताओं की ऐसी बातें सुनने की आदत सी पड़ गई है। न जाने कहां है वो जमीनें, जो देने की बातें समय-समय पर नेताओं ने हमें कही थीं। हमारे समाज के सैंकड़ों लोगों ने अफसरान के कहने पर समर्पण किया। क्या हुआ उनके साथ? उनके हथियार तो जमा करवा लिए, बदले में उनके नाम और पते लिख कर सदा के लिए अपराधी होने का लेबल लगा कर घर जाने दिया। अब वे सदा के लिए अपराधियों की सूची में बने रहेंगे।
समर्पण को बीते दसियों साल गुजर गए और वह मदद अभी भी गायब है। इसे लेकर बुरहानपुर के गांव पाचौरी के सिकलीगरों में खासा गुस्सा है। सिकलीगर समाज के नेता प्रेम सिंह पटवा कहते हैं कि जब सरकार को कुछ करना ही नहीं था तो वो सारा नाटक करने की जरूरत क्या थी। क्या जरूरत थी हमें एक अच्छी जिंदगी का सपना दिखाने की। क्या जरूरत थी हमारी भावनाओं के साथ खेलने की। हम तो यूं ही ठीक थे। अब जिन बच्चों के दिल टूटे, उन्हें हम किस मुंह से समझाएं कि हमने उन्हें हथियार जमा कर सरकार की योजना में हिस्सा लेने को कहा था, तो हमारी नीयत में खोट नहीं था।
एक सिकलीगर रंगील सिंह कहते हैं कि हमारी भावनाओं के साथ ही साथ हमारे सपने भी टूट गए। हमें तो ऐसा लगा कि हम अपने ही निजाम के ठगे हुए हैं।
समर्पण के नाम पर बहुतेरे तमाशे हुए, सरकारी आयोजन हुए, मीडिया में नेताजी छाए रहे, लेकिन अब उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। बुरहानपुर के नेताओं और एनजीओ भी इस सवाल पर थोड़ा परेशान ही दिखते हैं।
सबकी निगाहों में सिकलीगर नाम ही दहशत का है। कोई भी यह नहीं सोचता है कि सिकलीगरों के लिए भी कुछ किया जा सकता है। वे अपने गांवों में आम समाज से पूरी तरह कटे हुए बिना पानी, सड़कों, दवाओं और शिक्षा के जीने के लिए अभिशप्त हैं।