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किसान आंदोलन से ध्यान भटकाने के लिए भारत-चीन विवाद हाईलाइट?

ऐसा लगता है कि भारत-चीन सीमा विवाद पर राहुल गांधी की प्रेस कांफ्रेंस के बाद मीडिया ने इस मुद्दे को जिस तरह लपका है, वह किसान आंदोलन की तरफ से देश का ध्यान हटाने की कोशिश है। भाजपा और कांग्रेस एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। पहले भारत और चीन के बीच बातचीत के बाद मोर्चे से दोनों देशों की सेनाओं के लौटने की खबरें फ्लैश हुईं। इसके अगले दिन कांग्रेस नेता राहुल गांधी मोदी सरकार पर यह आरोप लगाते हुए पत्रकारों के समक्ष उपस्थित हुए कि मोदी सरकार ने चीन को भारत की 8 किलोमीटर पवित्र भूमि सौंप दी। यह आरोप लगाने के बाद वह भाषण देने के लिए राजस्थान चले गए।

इस समय किसान आंदोलन देश का ज्वलंत मुद्दा है। किसान आंदोलन के बहाने देश का जनमानस मीडिया की परवाह किए बगैर एक नई करवट ले रहा है। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि किसानों के आंदोलन ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नाक में दम कर रखा है। राज्यसभा और लोकसभा में उन्हें किसान आंदोलन को लेकर बौखलाते हुए पूरे देश ने देखा है। दूसरी तरफ वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण पूरा देश प्राइवेट सेक्टर के हवाले करने की खुली घोषणा कर चुकी हैं। किसान आंदोलन के बहाने देश की सुप्तप्राय जनता को लोकतंत्र का महत्व समझ में आने लगा है। भले ही काफी देर हो गई हो, लेकिन लोग अब धीरे-धीरे समझने लगे हैं कि इतने बड़े देश का विशाल लोकतंत्र छल-कपट से भरे बाजीगरों को ठेके पर नहीं दिया जा सकता। 

मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद कुछ खास लोगों के लिए देश की हर तरह की व्यवस्था का हर तरह से दोहन करने की मशीन फिट कर दी है। सभी लोगों के दिमाग सुन्न हैं। साधनहीन विवश हैं। विरोध करने पर पागल कहलाते हैं। संपन्न लोग संपत्ति छिनने के भय से सरकार के गुलाम बने हुए हैं। मोदी जनता के सामने कई बार तरह-तरह के प्रहसन कर चुके हैं। ताली-थाली बजवा चुके हैं। बेमौसम दीये जलवा चुके हैं। एक बीमारी को लड़ाई बता चुके हैं।

मोदी लगातार लोगों को बहलाने वाली बातें कहते रहते हैं और गिनती के कुछ लोगों के मन की करते रहते हैं। मोदी के प्रधानमंत्री रहने तक किसी अन्य की प्रतिभा, क्षमता, योग्यता, बुद्धि, विवेक आदि शून्य है। बहुत से लोग अब तक ऐसा मानते रहे हैं, लेकिन किसान आंदोलन के बाद उनमें से कई के दिमाग की खिड़कियां खुलने लगी हैं। इस तरह मोदी नायक से खलनायक में तब्दील होने लगे हैं।

मोदी को देश में अभी बहुत उखाड़-पछाड़ करनी है। दानवाकार कारोबारियों का हित करना है। जन साधारण को ज्यादा से ज्यादा कंगाल बनाकर भगवान भरोसे छोड़ना है। ऐतिहासिक संसद भवन को इतिहास का अध्याय बनाते हुए अपने नाम का पत्थर लगवाकर नया संसद भवन बनाना है। बनी बनाई कई ऐतिहासिक इमारतों को तुड़वाकर अपने करीबियों को भारी भरकम ठेके दिलवाने हैं। ये सारे काम अभी अधूरे हैं और इनको मोदी जनता के सब्र का बांध टूटने से पहले इनको पूरे कर लेना चाहते हैं। पूरा प्रशासन इस कदर उनकी मुट्ठी में है कि कैबिनेट सचिव से लेकर जिलों के कलेक्टर तक सिर्फ चपरासी की तरह काम कर रहे हैं। कई लोगों के लिए यह परिस्थिति सहन से बाहर हो रही है। किसान आंदोलन की विराटता इसका स्पष्ट प्रमाण है।

गणतंत्र दिवस पर उपद्रव और पुलिस की तमाम सख्ती के बावजूद, सड़कों पर नुकीले कांटे लगवा देने के बावजूद जब किसान आंदोलन शांत नहीं हुआ और अन्य शहरों में भी किसानों की विशाल रैलियां शुरू हो गई तो कोई ऐसा मुद्दा भड़कना जरूरी था, जिससे देश की अस्मिता जुड़ी हो। मोदी सरकार ने कुछ शर्तें मानकर चीन के साथ समझौता करते हुए यह कर दिखाया। इसकी आलोचना करने के लिए राहुल गांधी सामने आ गए।

मोदी सरकार के समर्थक मानते हैं कि राहुल की सुनता कौन है? और राहुल का भी किसान आंदोलन से, भारतीय जीवन शैली से क्या लेना-देना? फिर भी राहुल और उनकी बहन प्रियंका किसानों के साथ फोटो सेशन करके कांग्रेस में जान डालने की कोशिश कर रहे हैं। चीन को 8 किलोमीटर जमीन देने का आरोप लगाते हुए उन्होंने यह भी साबित करने की कोशिश की है कि उन्हें किसानों के साथ ही देश की भी उतनी ही चिंता है।

इस समय देश एक चक्रव्यूह में फंसा हुआ है। मोदी अपनी मनमानी करते रहेंगे और सोनिया, राहुल और प्रियंका किसी भी जन आंदोलन में अपनी मौजूदगी दिखाते हुए आंदोलन को पटरी से उतारने की कोशिश करते रहेंगे। इस तरह लोकतंत्र का मजाक उड़ता रहेगा। लगता है देश की राजनीति अब कांग्रेस और भाजपा के बीच नूरा कुश्ती बन चुकी है। दोनों की नीतियां समान हैं। कांग्रेस की सरकारों ने जो एजेंडे तय किए थे, उनको रफ्तार देने का काम मोदी सरकार कर रही है। कांग्रेस सरकार में आर्थिक भ्रष्टाचार विकेंद्रीकृत था, कई लोग कमा रहे थे। मोदी सरकार में नोटबंदी के बाद वह केंद्रीकृत हो गया है। लगता है भ्रष्टाचार करने का अधिकार अब सिर्फ पुलिस व प्रशासन के सक्षम अधिकारियों के पास ही रह गया है।

व्यापारियों को जनता की परवाह किए बगैर मनमानी करने की छूट दे दी गई है। निजी कारखानों में मजदूरी करने वालों को मिलने वाला सरकारी संरक्षण समाप्त कर दिया गया है। कोरोना महामारी के बाद पूरा देश तरह-तरह की पाबंदियों के जाल में फंसा हुआ है और मोदी सरकार पर किसी तरह की कोई पाबंदी नहीं है। वह कुछ भी कर सकती है। राज्य में सरकार बदल सकती है। सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज को राज्यपाल बना सकती है, राज्यसभा में ला सकती है। रिटायर्ड सेना प्रमुख को मंत्री बना सकती है। इतिहास में एमए पास आईएएस को रिजर्व बैंक का गवर्नर बना सकती है। योजना आयोग का नक्शा बदल सकती है। जनता में तरह-तरह के भ्रम फैला सकती है। मोदी सरकार को यह सब करते हुए जनता ने देखा है और देख रही है। मोदी की मनमानी विरोध शुरू हो गया है।

ऐसे में किसान आंदोलन को जन आंदोलन में बदलने से रोकने के लिए कुछ करना जरूरी था। किसान आंदोलन को मीडिया की और अखबारों की हैडलाइन बनने से बचाने के लिए चीन के साथ समझौता एक अच्छा कदम था। इस समझौते के बाद राहुल गांधी ने करीब 15 मिनट की प्रेस कांफ्रेंस करके एक सुरसुरी छोड़ दी कि मोदी सरकार ने 8 किलोमीटर की जमीन चीन को दे दी। अब कई लोग किसान आंदोलन को छोड़कर इस बहस में उलझेंगे कि मोदी सरकार चीन के सामने घुटने टेक रही है या नहीं। टीवी चैनलों ने इस मुद्दे को बुरी तरह उभारना शुरू कर दिया है।

रही बात भारत और चीन के संबंधों की तो चीन के खिलाफ उन्माद पैदा करने का प्रयास व्यर्थ है, क्योंकि भारत के व्यापार में चीनी कंपनियों का अच्छा-खासा दखल है। गुजरात में सरदार पटेल की विशाल हाईटेक प्रतिमा भी चीन की मदद से ही स्थापित की गई है। मोदी सरकार चीन के एप बंद करके सराहना बटोरती है और अंदरखाते चीन के साथ व्यापारिक सहयोग जारी रहता है। भारत चीन के बहुत से सामान के लिए मंडी बना हुआ है।

भारत और चीन की सीमा 3488 किलोमीटर लंबी है। जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश चीन से सटे हुए राज्य हैं। इस सीमा पर हमेशा कहीं न कहीं चीन का कुछ न कुछ उपद्रव जारी रहता है। पिछले साल 15-16 मई को लद्दाख की गलवान घाटी में चीन की सेना ने भारत के 20 सैनिकों को मार दिया था, तब मोदी ने जोरदार शब्दों में कहा था कि भारत में न कोई घुसा है, न ही घुस सकता है। इसके बाद उन्होंने लद्दाख में एक इवेंट करके सैनिकों को संबोधित किया था, जिसका टीवी पर सीधा प्रसारण हुआ था। जहां रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को जाना था, वहां वह खुद चले गए थे।

मोदी सरकार के इतिहास को देखें तो भारत-चीन संबंधों के बारे में जो खबरें अचानक आने लगी हैं, उनका महत्व यही है कि उनकी वजह से मीडिया में किसान आंदोलन कुछ हद तक दब जाएगा। न तो चीन का रवैया सुधरा है और न ही भारत को कोई कूटनीतिक सफलता मिली है। वास्तविक परिस्थिति अलग है और हवा फैलाने का काम अलग। देखना यही है कि इस तरह किसान आंदोलन को मीडिया में कब तक अंडरप्ले किया जा सकता है। हकीकत यह है कि मोदी सरकार कुछ भी कर ले, उसे तीनों कृषि कानून वापस लेना पड़ेगा, नहीं तो देश में विस्फोटक बनना तय है।

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