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दशहरे पर मन की बात

यह लगातार तीसरा दशहरा है, जब लोगों को धूमधाम से समारोह मनाने का अवसर नहीं मिला। फिर भी लोगों ने दशहरा मनाया। जगह-जगह छोटे-छोटे रावण के पुतले जलाए गए। बुराई पर अच्छाई की विजय। इस समय देश में सभी तरह की बुराइयों को खत्म करने का अभियान जोर-शोर से चल रहा है। कांग्रेस एक बुराई है, मुसलमान एक बुराई है, दलित एक बुराई है, स्वतंत्र सोच-विचार रखने वाला व्यक्ति एक बुराई है। इन सभी बुराइयों को खत्म करने की जिम्मेदारी पिछले सात-आठ साल से एक गिरोह ने संभाल रखी है, जो अपने चहेते सौदागरों का धंधा लोकतंत्र के पैकेट में देश में जमाना चाहता है।

संसद भवन बुरा था। वह बदला जा रहा है। छोटे-छोटे रोजगार बुरे थे, वे खत्म कर दिए गए। कुम्हार, लुहार, कसेरा, स्वर्णकार, सुतार आदि के परंपरागत धंधे बुरे थे, वे खत्म किए जा रहे हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अब सिर्फ सोशल मीडिया पर शरण लिए हुए है। सारे समाचार चैनल सरकार के भोंपू और तमाम अखबार सरकारी पर्चे बन कर रह गए हैं। सरकारी रिपोर्टों को हाईलाइट करने वाले लोग बड़े पत्रकार कहलाते हैं। सरकार क्या अच्छा कर रही है, प्रधानमंत्री क्या भाषण दे रहे हैं, क्या वादे कर रहे हैं, क्या अपील कर रहे हैं, क्या घोषणाएं कर रहे हैं, कुछ लोगों के लिए बस यही पत्रकारिता है और सरकार ऐसे पत्रकारों को सम्मानित करती है।

दशहरे पर कल्पना मन में आती है कि शंकरजी से वरदान प्राप्त प्रतिभाशाली दशानन रावण का राज कैसा होगा कि भगवान विष्णु को उसको मारने के लिए अवतार लेना पड़ा। शायद वह बिलकुल ऐसा ही होगा, जैसा इस समय हम देख रहे हैं। तमाम सरकारी एजेंसियां उन संपन्न लोगों को छांट-छांट कर दंडित करने में लगी हुई है, जो सरकार के कार्यों से असहमति रखते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पिछले 7-8 साल से देश को यही समझाने में लगे हुए हैं कि सिर्फ एक ही पार्टी अच्छी, एक ही विचारधारा अच्छी और सिंगल ब्रांड वाले गुलाम लोग अच्छे। यह एक तथ्य है कि रावण मुसलमान नहीं था। वह था भी या नहीं, इस बात को लेकर दुनिया भर में तरह-तरह की बातें हैं, लेकिन अपन हिंदू होने के नाते भरोसा करते हैं और हर साल दशहरे पर उसका पुतला जलाकर गलतफहमी पाल लेते हैं कि हमने बुराईयों के प्रतीक रावण को जला दिया।

जब हम रावण को बुराई के प्रतीक के रूप में देखते हैं, तो अपने आसपास भी देख लेना चाहिए कि क्या हो रहा है। सारी घटनाएं समय के इतिहास में दर्ज होती हैं और भविष्य उसका मूल्यांकन करता है। पिछले 10 साल पहले की घटनाओं के आधार पर जो परिस्थिति बनी थी, उसमें लोगों ने बतौलेबाज लोगों की बातों में देश का भविष्य तलाशना शुरू कर दिया था। अच्छे दिन आएंगे, सुनते-सुनते लोगों के कान पक गए। दिमाग में बात बैठ गई कि इतना प्रचार है तो अच्छे दिन आ भी सकते हैं। और इस तरह भोले-भाले भारतीयों ने देश का लोकतंत्र एक बतौलेबाज के सुपुर्द कर दिया। अब लोग सोचते हैं कि पुराने दिन ज्यादा अच्छे थे।

बतौलेबाज जुमला इंजीनियरों ने गिरोहबद्ध होकर पूरे देश की अर्थव्यवस्था का बंटाढार करते हुए उसे अपने कब्जे में ले लिया है और प्रयास हो रहा है कि ऐसा कोई भी व्यक्ति संपन्न न होने पाए, जो अपना समर्थक नहीं है। जैसे रावण के राज में राक्षस किया करते थे। जो रावण की विचारधारा को नहीं मानते थे, ऐसे लोगों को आश्रमों को रावण के राक्षस कार्यकर्ता तहस-नहस कर देते थे। उनका जीना मुश्किल कर देते थे। क्या इस समय कई लोगों का जीना मुश्किल नहीं किया जा रहा है? प्रचार है कि बुराइयों को खत्म किया जा रहा है। मतलब यह कि अब तक जो कुछ था, सब बुरा ही बुरा था। अच्छे लोग अब आए हैं, जो पूरे देश को एक ही यूनीफार्म में देखना चाहते हैं।

रावण का राज भी ऐसा ही होगा। वह भी अपने राक्षसों को यूनीफार्म में रखता था। हम रावण का पुतला तो जलाते हैं, लेकिन यह नहीं सोचते कि हमारे साथ क्या हो रहा है? अच्छाई-बुराई का प्रमाण पत्र कौन किसको देगा? जो लोग धर्मांधता से प्रेरित, अंधभक्ति के प्रवर्तक, लूट-खसोट, चालाकी-चतुराई, छल-कपट, बतौलेबाजी के समर्थक हैं, वे अच्छे और बाकी सब बुरे। कल्पना कीजिए कि अगर वर्तमान समय में राम की उपस्थिति होती तो वे क्या करते? और, हम बुराइयों का पुतला जलाने वाले लोग यह कब समझेंगे कि लोकतंत्र को नष्ट करने वाले लोग अच्छे हैं या बुरे? अभी भी समय है, संभलने की जरूरत है। जब सब-कुछ बिक जाएगा, तो आने वाली पीढि़यां किन-किन की गुलामी करती फिरेंगी?

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