क्या हिंदी अखबार ही लोकतंत्र के लिए खतरा बन गए?
दैनिक भास्कर के मालिकों पर छापा पड़ने के बाद देश के तमाम बड़े हिंदी अखबारों का रवैया देखकर लगता है कि भारतीय लोकतंत्र को असली खतरा उन्हीं से है। बड़े-बड़े अखबार समूह बिकाऊ प्रोडक्ट की तर्ज पर अखबार छापते हैं, जिनमें संपादक नहीं, सिर्फ मालिकों के जी हुजूरिए होते हैं। जबसे दैनिक भास्कर का संपादकीय कारोबार अमेरिका पलट मालिक सुधीर अग्रवाल ने संभाला है, उसके बाद से अन्य अखबार समूहों ने भी यही लाइन पकड़ ली है। इस समय दैनिक भास्कर के अलावा दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, राजस्थान पत्रिका, प्रभात खबर आदि प्रमुख हिंदी अखबार हैं, जो बड़े पैमाने पर छप रहे हैं। छोटे-छोटे कई अन्य भी हैं। दैनिक भास्कर पर छापा पड़ने के बाद सभी सहमे हुए हैं।
आयकर का छापा पड़ने से दैनिक भास्कर की सेहत पर कोई असर नहीं है। उसकी तेज रफ्तार मशीनें लगातार रद्दी छाप रही हैं और वह रद्दी अखबार के रूप में नियमित रूप से करोडो़ं लोगों के घर तक पहुंच रही है। कई लोग अखबार को विश्वसनीय मानते हैं। अखबार पढ़े-लिखे लोगों के जीवन का अंग होता है। अखबारों के जरिए उनकी विचार शैली भी प्रभावित होती है। अखबार के साथ पाठक का इमोशनल टच होता है। सुधीर अग्रवाल ने फेयर एंड लवली की तर्ज पर अखबार बेचा और कामयाबी के ऊंचे पायदान पर बैठ गए। उनका प्रोडक्ट बिक रहा है। अखबार छपना बंद नहीं हुआ है, लेकिन उसमें ये खबरें छपनी बंद हो गई हैं कि दिल्ली में संसद में मोदी सरकार बुरी तरह हिल रही है और पेगासस जासूसी कांड उस पर भारी पड़ रहा है।
जब दैनिक भास्कर पर छापा पड़ सकता है तो हम किस खेत की मूली हैं, यह सोचकर अन्य अखबार समूहों ने भी यही रवैया अपनाया हुआ है, क्योंकि भाजपा की सरकारें मीडिया को जमकर खैरात बांटती है और राजनीतिक फायदे के लिए भ्रष्ट मीडिया समूहों को गोद में बिठाए रहती है। अगर कहीं विरोध का स्वर दिखाई देता है तो उसको दबाने के कई तरीके हैं। ऑक्टोपस की तरह सरकार की कई एजेंसियां हैं। एक से छुटकारा मिलने पर दूसरी पीछे लगती है। मोदी सरकार अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए विरोध की कोई भी गुंजाइश नहीं रहने देना नहीं चाहती, इसलिए वह सभी एजेंसियों का खुलकर इस्तेमाल कर रही है, जिसके तहत राजद्रोह और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून का उपयोग बढ़ गया है। पढ़ने लिखने वाले कई लोग सिर्फ विचारधारा के आधार पर जेल भेज दिए गए हैं, जिनकी उम्र का भी विचार नहीं किया जाता।
मोदी सरकार असुरक्षा से ग्रस्त है और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कथनी-करनी में भारी अंतर लोग साफ देख रहे हैं। जो लोग कांग्रेस सरकार में महंगाई के खिलाफ आंदोलन करते थे, वे अब महंगाई दो गुना होने के बावजूद मोदी सरकार को टिकाए रखने के लिए महंगाई का समर्थन कर रहे हैं और लोगों को खतरे बता रहे हैं कि मोदी सरकार के नहीं रहने से क्या-क्या हो सकता है। लोगों को संस्कृति पर खतरा बताते हुए उलझाया जा रहा है। स्कूल-कॉलेज, सिनेमा-थिएटर, सम्मेलन-सेमीनार आदि दो साल से बंद हैं और विदेशी ताकतें भारत में खुलकर कबड्डी खेल रही हैं। बेचने के लिए देश का कोना-कोना देखा जा रहा है। भाजपा को ताकतवर बनाए रखने के लिए इस कदर पानी की तरह रुपए बहाए जा रहे हैं कि देश की पूरी अथर्व्यवस्था चौपट हो गई है।
मोदी ने पिछले 7 साल में यही किया है कि साधारण लोगों के कमाने खाने के रास्ते बंद कर दिए और अपने अलावा किसी का प्रचार नहीं होने दिया। मोदी ने कभी पत्रकारों से बात नहीं की और अपने मंत्रियों को भी पाबंद कर दिया के वे पत्रकारों से बात न करें। पत्रकारों से बात करने वाले मंत्रियों को उन्होंने मंत्रिमंडल से निकाल दिया। अब किसी को नहीं मालूम कि मोदी के अलावा केंद्र सरकार में और कौन-कौन मंत्री है। इस बीच पेगासस स्पाईवेयर से जासूसी का मामला सामने आने के बाद मोदी सरकार के पास कोई जवाब नहीं है कि इजराइली कंपनी के जरिए भारत में करीब 300 लोगों की जासूसी किसने करवाई है। इनके फोन नंबरों को 2016 में टारगेट किया गया था, जिनमें हैरतअंगेज नाम हैं। जज, मंत्री, अफसर, व्यापारी, पत्रकार सभी शामिल हैं, जिनको लेकर कभी भी राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा नहीं हो सकता है। फिर खतरा किसे हो सकता है, जिसके लिए जासूसी करवाई गई? और जासूसी करवाने के लिए करीब 2700 करोड़ रुपए किसने खर्च किए? कंपनी का कहना है कि वह सरकारों को ही स्पाईवेयर बेचती है।
दैनिक भास्कर पर छापे के बाद लगभग सभी हिंदी अखबारों में वे सभी खबरें छपनी बंद हो गईं या अंडरप्ले होने लगीं, जो मोदी सरकार के विपरीत हो। यहां तक कि संसद तक की खबरों को अंडरप्ले किया जा रहा है। यह भारतीय लोकतंत्र का नाजुक क्षण है, जिसमें अखबारों के संपादकों की महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए, लेकिन संपादक के पद पर जो जी हुजूरिए बैठे हैं, उनकी तुलना कम से कम समझदार विवेकसंपन्न मनुष्य से तो नहीं की जा सकती। वे निश्चित तौर पर पैसे के लिए उन पाठकों के साथ अन्याय ही कर रहे हैं, जो विचार शक्ति के लिए अखबारों में संबल खोजते हैं।
जो लोग विपक्ष की एकता में जुटे हैं, उन्हें यह तथ्य ध्यान में रखना चाहिए कि आधा दर्जन से ज्यादा बड़े हिंदी अखबार समूह उनके साथ बिलकुल नहीं रहने वाले हैं, क्योंकि इस समय अखबार मालिकों को देश से ज्यादा अपनी कमाई प्यारी है। पेगासस मामले की एक हैडलाइन छपी और सरकार ने अखबार मालिक के गले में पट्टा डाल दिया। अखबार पर कोई असर नहीं पड़ेगा। वह छपता रहेगा। बस अपने पाठकों को लोकतंत्र का गला घुटते हुए नहीं दिखाएगा। विपक्षियों को ऐसे अखबार समूहों से निबटने और जवाब में एक निष्पक्ष अखबार समूह खड़ा करने की जरूरत है, जो संपादकों के हाथ में हो, मालिकों के हाथ में नहीं।