निर्लज्जता का युग
यह निर्लज्जता का युग है। एक सैलाब सा उमड़ आया है जो सदाचार को बहाए ले जा रहा है। सामाजिक स्वास्थ्य के लिए ख़तरनाक एक टोली ने बाजीगरी से सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया। बाजीगरों के तमाशे में मगन होकर अब देश का एक बड़ा हिस्सा स्वयं गुलाम बनने और आने वाली पीढ़ी के लिए स्थायी गुलामी छोड़ जाने के लिए तैयार है।
टेक्नोलॉजी के जरिए ज्यादातर लोगों का दिमाग़ कब्जे में लिया जा रहा है और उन्हें सिर्फ एक दिशा में सोचने के लिए विवश किया जा रहा है। अमुक नेता-अभिनेता का गुणगान करते रहो, नहीं तो राजद्रोही। गजब की नौटंकी चल रही है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब यह कि मवालियों की टोली का विरोध मत करो, बाक़ी सबकुछ करो। जनता के लिए जनता की सरकार की अवधारणा अब समाप्त है।
संसद में साफ कहा जा चुका है कि क्या देश ये बाबू संभालेंगे? गौरतलब है कि इस देश को सत्तर साल से बाबुओं ने ही संभाल रखा है। कितने ही प्रधानमंत्री आए और गए, देश का लोकतंत्र अपनी जगह टिका रहा और इसी में विकास के रास्ते भी बने।
अब अगर कोई अक्ल का अजीर्ण होने के बाद हेकड़ी में यह कहे कि ये बाबू क्या देश संभालेंगे तो इन बाबुओं को क्या करना चाहिए। ये बहुत पढ़-लिख कर प्रशिक्षण प्राप्त कर लोकतंत्र की सरकार चलाने के लिए नियुक्त किए गए हैं। अब इनकी जमात में उन लोगों को भी भर्ती करने की तैयारी हो गई है, जो बगैर पढ़े-लिखे सीधे सरकार चलाने की भूमिका में आने वाले हैं। जिन्हें संसद में बाबू कहा गया, वे क्या सिर्फ एक टोली के चपरासी हैं? क्या देश की जनता को इन बाबुओ से जरा भी उम्मीद नहीं करनी चाहिए?