मोदी खुद किसानों ही नहीं, सबको भड़का रहे हैं
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि कोई किसानों को भड़का रहा है। उन्होंने सही कहा। उनकी बात सही है या गलत, यह मालूम करने की कोशिश की तो पता चला कि मोदी खुद ही किसानों को भड़का रहे हैं। किसानों को ही नहीं, उन्होंने छोटे व्यापारियों को और आम नागरिकों तक को भड़का दिया है। इसके साथ ही उन्हें यह भी पता है कि ये गरीब लोग भड़केंगे भी तो क्या कर लेंगे? चुनाव के समय कई मुद्दे पैदा किए जा सकते हैं, जिनका नागरिकों की रोजमर्रा की जिंदगी से कोई लेना-देना नहीं होता।
किसान आंदोलन मोदी के गले की फांस बन चुका है और उसे खत्म करने के लिए तमाम प्रपंच किए जा रहे हैं। यह सोचे बगैर कि देश का लोकतंत्र किस रास्ते पर जा रहा है। मोदी सरकार बनने के बाद देश में मुद्रा का प्रचलन अस्त-व्यस्त हुआ, व्यापारियों का परंपरागत कारोबार नष्ट हुआ, कंपनियों में काम करने वाले मजदूरों की हालत खराब हुई और अब कृषि व्यापार कानूनों के जरिए छोटे किसानों की जमीनों पर निगाहें हैं। किसानों ने आंदोलन शुरू किया तो यह साबित करने में पूरी ताकत लग रही है कि वे तो किसान ही नहीं हैं। विरोधियों के भड़काए हुए लोग हैं, जो मोदी को देश की भलाई करने से रोक रहे हैं।
किसान आंदोलन को खालिस्तान, पाकिस्तान, चीन, दलालों, वामपंथियों आदि से जोड़ा गया, लाल किले पर उपद्रव हुआ, मोदी के कानूनों को सही साबित करने के लिए सरकार की पूरी ताकत लगी, लेकिन आंदोलन जस का तस है। पहले वह दिल्ली के आसपास तक सीमित था। अब वह ग्रामीण क्षेत्रों में फैल रहा है। अब इस आंदोलन को विदेशी ताकतों से प्रेरित बताने का प्रपंच रचा जा रहा है। बेंगलुरु से एक क्लाइमेट एक्टिविस्ट युवती दिशा रवि को पकड़कर आंदोलन के तार खालिस्तान से जोड़ने की कवायद हुई, जिसे अदालत ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगाते हुए जमानत पर रिहा कर दिया।
किसान आंदोलन से निबटने के तरीके से साबित हो रहा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश को गलत दिशा में ले जा रहे हैं। अंग्रेजों के बनाए कानूनों का जितना दुरुपयोग किया जा सकता है, मोदी सरकार कर रही है। भाजपा विरोधियों के जीने के रास्ते ही बंद करने की तैयारी कर ली गई है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आर्थिक कानूनों का शिकंजा है। नोटबंदी, जीएसटी से लेकर लोगबंदी तक, कई घटनाएं इसका प्रमाण हैं। अपने ही नागरिकों से शत्रु की तरह व्यवहार करने वाली ऐसी सरकार पहले कभी नहीं देखी गई। यह सरकार विश्व में हिंदुओं की धर्म-ध्वजा फहराने के लक्ष्य के साथ बनी है, लेकिन मोदी का न धर्म से कोई लेना-देना है और न ही हिंदुत्व से। वे देश को पूरी तरह गिनती के कॉर्पोरेट घरानों को सौंप देना चाहते हैं।
लोकतंत्र में सरकार जनता की होती है। जनता नेता का चुनाव करती है और नेता चुनाव जीतने के जनता के हित में सरकार चलाते हैं। जनता ने मोदी के लच्छेदार भाषण सुनकर भरोसा किया और उन्हें शासन की बागडोर सौंप दी, लेकिन मोदी जनता के प्रति ईमानदार नहीं दिख रहे हैं। उनकी सरकार देश को गृहयुद्ध की तरफ ले जा रही है और पाकिस्तान, चीन जैसे पड़ोसी देश इसका इंतजार कर रहे हैं। किसान आंदोलन के प्रति मोदी सरकार जिस तरह अडि़यल बनी हुई है, उससे ऐसा ही लगता है। जिस पैमाने पर राजद्रोह के कानून का दुरुपयोग किया जा रहा है, उससे लगता है कि मोदी को पूरे देश में सिर्फ खुद की अभिव्यक्ति ही पसंद है। उनकी सरकार और किसी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देना नहीं चाहती।
मोदी सरकार के कार्यों से इतनी बड़ी संख्या में लोग भड़क चुके हैं कि उन्हें अब किसी पर आरोप नहीं लगाना चाहिए और अपनी ही एजेंसियों से जनता के बीच ठीक से सर्वेक्षण करवा लेना चाहिए। भारत सरकार जनमानस की टोह लेने में सक्षम है। किसान आंदोलन तो अपनी जगह है ही, पेट्रोल, डीजल और गैस की कीमतें, बढ़ती महंगाई, घटती आमदनी, रोजगार का संकट और यात्राओं पर तरह-तरह की पाबंदियां नागरिकों के सब्र का बांध तोड़ने के लिए काफी हैं। जिन मुद्दों को लेकर भाजपा विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस को घेरा करती थी, वे ही मुद्दे अब मोदी सरकार के सामने हैं और मोदी को आंदोलन पसंद नहीं है। आंदोलन करने वालों को वह आंदोलनजीवी कहते हैं।
समझा जा सकता है कि स्थिति गंभीर है और इसका तोड़ निकालना पड़ेगा। कांग्रेस के रंग-ढंग ऐसे दिख रहे हैं कि उसे सिर्फ सत्ता से मतलब है। उसे विपक्ष की भूमिका निभानी ही नहीं आती। भाजपा के आईटी सेल और कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं ने राहुल गांधी को इस तरह हाईलाइट किया हुआ है कि लोगों को मोदी के विकल्प के रूप में राहुल सामने दिखते हैं और चुनाव के समय लोग कांग्रेस की तरफ बढ़ने वाले अपने कदम पीछे खींच लेते हैं। कोई यह समझने के लिए तैयार नहीं है कि देश बरबाद होने के बाद अगर कांग्रेस को सत्ता मिल भी गई तो राहुल उसका करेंगे क्या? विपक्षी पार्टियों के अन्य नेताओं को भी यह सोचना चाहिए कि सबकुछ बिक जाने के बाद वे क्या करेंगे?
इस देश में पढ़े-लिखे लोग कम हैं और संपन्न लोग भी जनसंख्या के करीब एक चौथाई ही हैं। मोदी समझ गए हैं कि सरकार में बने रहने के लिए इतने लोगों पर काबू कर लेना पर्याप्त है। गरीब लोग वोट देते रहेंगे और संपन्न लोग अपनी संपन्नता बचाने के लिए सरकार का समर्थन करते रहेंगे। मोदी को गलतफहमी हो गई है कि भारतीय लोकतंत्र में जनसाधारण को चाहे जैसे नचाया जा सकता है। वे एक आदेश पर नोट बदलने के लिए कतार में लग जाते हैं। ताली-थाली बजाने को कहो, तो बजा देते हैं। बिना कारण दीए जलाने को कहो तो वह भी कर देते हैं। एक फरमान पर अपने ही घरों में नजरबंद हो जाते हैं। ऐसी आज्ञाकारी जनता और किस देश में मिल सकती है? देश को विकट तानाशाही तक पहुंचा देने वाली रपटीली राह पर तेजी से चल पड़े इस भारतीय लोकतंत्र की रफ्तार को कौन कम कर सकता है?