अगर ज्ञानी की संख्या कम, मूर्खों की संख्या ज्यादा होगी, तो मूर्ख लोग ज्ञानी पर शासन करेंगे – अरस्तू
ये विचार किसी अन्य के हैं, जिन्हें कॉपी पेस्ट किया है – Rishikesh Rajoria
साथियों,
अरस्तू ने कहा था कि अगर ज्ञानी की संख्या कम मूर्खों की संख्या ज्यादा होगी तो मूर्ख लोग ज्ञानी पर शासन करने लगेंगे.
आप मानो या न मानो, लेकिन भारत है तो मूर्खों का ही देश.
आपको ये बात भले ही अटपटी लगे लेकिन अकाट्य तथ्य तो यही साबित करते हैं कि भारत, बाक़ायदा, एक मूर्ख-प्रधान देश हैं.
भारत यदि मूर्खों का देश ना होता तो 130 करोड़ लोगों वाले इस देश में कैसे एक आदमी लाखों का सूट-बूट पहनकर कहता है कि मैं ग़रीब हूँ और जनता उसे ग़रीब मान भी लेती है.
भारत यदि मूर्खों का देश ना होता तो CBI, ED, IT, NIA जैसी एजेंसियाँ और SC, EC, CAG जैसी संवैधानिक संस्थाएँ जिस एक आदमी की कठपुतली हैं, वो आदमी कहता है कि मुझे सताया जा रहा है और लोग मान भी लेते हैं.
भारत यदि मूर्खों का देश ना होता तो जिसके पास संसद में भारी बहुमत हो, जिसकी पार्टी 22 राज्यों में सत्ता में हो, वो कहे कि विपक्ष उसे संसद में काम नहीं करने दे रहा और लोग मान भी लेते हैं.
भारत यदि मूर्खों का देश ना होता तो जो भ्रष्टाचार में जेल काट चुके लोगों को टिकट देकर भी कहता है कि मैं भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ रहा हूँ, लोग उसे भी सही मान लेते हैं.
भारत यदि मूर्खों का देश ना होता तो जिसके शासन में सबसे ज़्यादा भारतीय सैनिक शहीद हुए वो कहता है कि दुश्मन उससे काँप रहा है और लोग मान भी लेते हैं.
भारत यदि मूर्खों का देश ना होता तो जिसके राज में सबसे ज़्यादा किसानों ने आत्महत्या की हो. फिर भी वो कहता फिरे कि उसने किसानों को ख़ुशहाल बनाया है और लोग मान भी लेते हैं.
भारत यदि मूर्खों का देश ना होता तो जिसके राज में बलात्कार का वारदातें रोज़ाना नये कीर्तिमान बन रही हों, फिर भी वो कहता है कि उसका ‘बेटी बचाओ’ अभियान सफल है और हम मान भी लेते हैं.
भारत यदि मूर्खों का देश ना होता तो सुखमय भविष्य का सपना दिखाकर सत्ता में आने वाला हमें भूतकाल में घुमाकर कहे कि वो हमारा उद्धार कर रहा है और हम मान भी लेते हैं कि हम ख़ुशहाल हो रहे हैं.
कालाबाजारी को खत्म करने का दावा करके नोटबंदी करने वाला छोटी बड़ी लाखों भारतीय कंपनियां बंद करा कर ढाई करोड़ भारतीयों को बेरोजगार करके कहता है नोटबंदी सफल रही और लोग मान भी लेते हैं.
देश का प्रधानमंत्री करोना वायरस जैसी आपदा में सरकार के तरफ से की गई व्यवस्था के बारे में जानकारी देने की बजाय लोगों से ताली और थाली बजाने की अपील करता है और लोग अपनी छतों बालकनी और गलियों से जुलूस लेकर निकल जाते हैं.
भारत मूर्खो का देश है जहाँ सरकार लोगो के पीने के पानी पर नही बल्कि ढोंगी और पाखंडियों के शाही स्नान पे करोडो का खर्च करती है.
राष्ट्रपति भवन को सजाने के लिए 20 हजार करोड़ और करोना से रक्षा के लिए पूरे भारत को मात्र 15 हजार करोड़ दिया. मूर्ख लोग मास्टर स्ट्रोक कह रहे हैं.
आज जो दिहाड़ी लोग थे जो रोज कमा कर खाते थे, आज वह पैदल ही भूखे प्यासे गांव की तरफ निकल पड़े हैं. उनके लिए कोई सुख सुविधा नहीं है.
यही जब कावड़िया की तरह निकलते थे तो लोग फूल माला बरसाते थे जगह-जगह खाने का इंतजाम करते थे आज कहां गया, ऊपर से पुलिस लाठी भी बरसा रही है.
जब डब्ल्यूएचओ ने पहले ही चेता दिया था. तो सबसे पहले एयरपोर्ट बंद कर देते बाहर से जितने भी लोग आए उनका सबसे पहले टेस्ट कर देते, तो आज यह कर्फ्यू और लॉकडाउन के कारण हो रही दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ता, न ही पैसे की बर्बादी होती. अब तो बची खुची जो अर्थव्यवस्था थी वह भी डांवाडोल हो जाएगी. और शायद इन्हीं सब को छुपाने के लिए, क्योंकि 6 सालों में तो कोई काम हुआ नहीं, तुम लोग पूछेंगे भी नहीं.
रोजगार मिलने की जगह रोजगार छीना जा रहा है, न ही महिलाओं को सुरक्षा मिली, न ही किसानों की हालत सुधरी, न ही लघु उद्योग आगे बढ़ पा रहा है, बल्कि डूबता ही जा रहा है। देश बर्बाद होता जा रहा है.
जो बचा खुचा है उसे बेचते जा रहे हैं, निजीकरण करते जा रहे हैं, और कितनी दुर्दशा होगी सोच नहीं सकते….
मौजूदा दौर तो चीख़-चीख़कर बता रहा है कि हमें मूर्खता बेहद पसंद है.
हमें अच्छे शासन-प्रशासन की नहीं बल्कि उम्दा लफ़्फ़ाज़ों की ज़रूरत है.
जो हमें नफ़रत और उन्माद की अफ़ीम चटाता रहे.
जबकि सच तो ये है कि ‘विश्व-गुरु’ भारत में उनका अवतार ही मूर्खता के विस्तार के लिए हुआ है.
मूर्खों को धर्म, जात, गोत्र, खाप, आस्था, मंदिर, मस्ज़िद, जाति/धर्म आधारित नफरत जैसे तोहफ़े हमेशा से बेहद पसन्द आते रहे हैं.
शिक्षा- रोजगार – स्वास्थ्य सेवा- हॉस्पिटल- कॉलेज- किसानों का उत्पादन- महिला सुरक्षा – लघु उद्योग आदि, बुनियादी जरूरत मूर्खों को नहीं दिखाई देती.
जय मूलनिवासी
– ऋषिकेश राजोरिया
लेखक देश के वरिष्ठ पत्रकार हैं। देश, समाज, नागरिकों, व्यवस्था के प्रति चिंतन और चिंता, उनकी लेखनी में सदा परिलक्षित होती है।
(लेख में प्रकट विचार लेखक के हैं। इससे इंडिया क्राईम के संपादक या प्रबंधन का सहमत होना आवश्यक नहीं है – संपादक)