बीमार मानस वाले मर्दों के अस्पताल हैं मुंबईया डांस बार – विवेक अग्रवाल
सवाल: यह किताब तो ऐसी है कि इस पर बात करने भर से आप चरित्रहीन करार दिए जा सकते हैं। आपने तो इसे खुल कर लिखा ही नहीं, सबके सामने बेबाकी से पेश कर दिया है।
विवेक: मेरा काम सत्य का उद्घाटन करना है, उसे छुपाना नहीं। सदा मुंबई के गिरोहबाजों पर काम करता आया और यह आरोप भी चस्पा होते रहे कि गिरोहबाजों से लाखों रुपए मुझे मिलते हैं। खबरें निकालने के चक्कर में वेश्याओं और बारबालाओं के बीच उठने-बैठने से चरित्रहीन होने का आरोप तो सदा झेलता आया। घोटाले उजागर किए तो पक्ष या विपक्ष से मोटी रकम मिलने के आरोप भी आयद हो लिए। इसमें मेरे लिए कुछ नया नहीं है। सुकरात से कबीर होते हुए मीरा तक, ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं, जिन्होंने समाज की स्थापित मान्यताओं के बरखिलाफ खड़े होने की कोशिश की तो वे खारिज हो गए। वही हालात हमारे जैसे लेखकों और पत्रकारों के साथ आज भी हैं। लोग इन लड़कियों के पास जाकर नंगे होते हैं लेकिन उन पर बात करना पसंद नहीं करते, उनके बारे में बात करने वाले पर पत्थर मारने से भी बाज नहीं आते हैं। ये भी समाज का अंग हैं, इन पर भी लिखना होगा, यही एक भावना है जो मेरे जैसे लोगों से काम करवाती है।
सवाल: आप किताब का नाम देते हैं बांबे बार, साथ ही लिखते हैं कि मुंबई की बारबालाओं की सफेद-स्याह दास्तां… ऐसा क्यों? एक ही शहर के दो नाम आवरण पर इस्तेमाल क्यों करते हैं आप?
विवेक: बहुत आसान सी बात है। मुंबादेवी से बांबे होते हुए मुंबई तक इस शहर के नाम का अपना भी इतिहास है। जब इस शहर के नरीमन पाईंट की बड़ी ही शानदार इमारत में पहला डांस बार सोनिया महल खुला था, तब इसका नाम बांबे ही तो था। जब ये डांस बार बंद होते हैं तो शहर का नाम बदल कर मुंबई हो चला था। इस तरह दो नामों भर आवरण आपके सामने शहर का इतिहास पेश कर देता है।
सवाल: किताब में नाम के साथ ‘चिटके तो फटके’ लिखा है, इसका क्या मतलब हुआ?
विवेक: इसके दो अर्थ हैं। कोई यदि किसी बारबाला से उसकी मर्जी के बिना चिपकने (चिटकने) की कोशिश करता है तो पिटता (फटके खाता) है। यदि बारबाला की मर्जी से चिटक लिया तो उसकी जेब को फटके खाने होते हैं। ये शब्द मुंबई में एक लड़की के स्कूटर पर लिखे देखे थे। लगा कि बांबे बार किताब का नाम इसके साथ ही मुकम्मल होता है, सो यह भी साथ जुड़ गया।
सवाल: आप समर्पण में लिखते हैं कि मुंबई की देहजीवाओं को कोटि-कोटि नमन, जिनका हम सबके बीच होना हर स्त्री की लाज बचाता रहा… इससे क्या मंतव्य है आपका?
विवेक: मैं यह मानता हूं कि यदि ये देहजीवाएं न होतीं तो समाज में हाहाकार मच जाता। वासना के रोग से पीड़ित पुरुष वर्ग समाज में स्त्रियों को जीने ही नहीं देते। आपको हर जगह सिर्फ और सिर्फ बलात्कार की खबरें देखने के लिए मिलतीं। इन दमित स्त्रियों के कारण ही समाज में अन्य महिलाओं का जीवन सुलभ व खुशनुमा बना रह पाता है। मैं तो मानता हूं कि मुंबई के डांस बार और वेश्यालय असल में बीमार मानसिकता वाले पुरुषों के अस्पताल हैं और ये बारबालाएं उनकी डॉक्टर हैं। उनके पास आकर ये बीमार पुरुष ठीक हो जाते हैं।
सवाल: क्या यह सच है कि मुंबई डांस बारों में सब कुछ ठीक नहीं है?
विवेक: जी हां, यह पूरा-पूरा सच है। डांस बारों की चकाचौंध के पीछे ऐसे सैंकड़ों राज हैं, जिनका सामने आना जरूरी है। किताब ‘बांबे बार’ के साथ यह कोशिश की है। भले ही ये लड़कियों की जाती जिंदगी के किस्से बयां करती है, उनके साथ-साथ अंदरूनी रहस्यों की परतें उधेड़ते चलती है। यह बताती है कि किस तरह बच्चियां चोरी करके लाई जाती हैं और जवान होकर किस तरह डांस बारों में धकेली जाती हैं। यह बताती है कि डांस बारों में लड़कियों का कैसे दैहिक, आत्मिक, आर्थिक, सामाजिक शोषण होता है। यह बताती है कि कैसे लड़कियों को फुसलाकर दुबई भेजा और नाचने तथा वेश्यवृत्ति के लिए मजबूर किया जाता है।
सवाल: डांस बारों में धन की नदियां बहती हैं, यह कितना सच है?
विवेक: यह सच है, तभी तो मुंबई में जितनी पान की दुकानें नहीं हैं, उससे कहीं अधिक डांस बार हैं। इसी कारण से सरकार की पाबंदी के बावजूद आज भी डांस बार आबाद हैं। पुलिस से नेताओं तक सबको हफ्ता (रिश्वत) देकर ये डांस बार तब भी चलते रहे हैं, आज भी चल रहे हैं। इसके पीछे यही मूल कारण है कि यहां धन की बारिश होती है। एक वक्त रहा है जब छोटे से छोटा डांस बार भी एक रात में 10 से 15 लाख रुपए की न्यौछावर हासिल हुए बिना बंद नहीं होता था। कुछ तो ऐसे थे जो रात भर में 50 लाख से एक करोड़ तक बारबालाओं पर न्यौछावर के रूप में हासिल कर लेत थे। आज डांस बारों में इतना पैसा नहीं उड़ रहा है, बावजूद इसके काम तो जारी है ही।
सवाल: बांबे बार में किन लड़कियों के बारे में बात होती है?
विवेक: हर किस्म की दमित देह के दर्शन आपको बांबा बार में होते हैं। यहां शर्वरी सोनावणे नामक एक लड़की की सच्ची दास्तान है, जो कलाकार है लेकिन उसे एक दलाल दुबई भेज कर डांस बार में नाचने और पुरुषों की कामपिपासा का शिकार बना देता है। यहां दो बहनों पिंकी-रिंकी की सच्ची कहानी है, जो कमाने और घर चलाने मुंबई आईं लेकिन बार मालिकों के वहशी इरादों और कर्मों का शिकार बन कर रह जाती हैं। यहां बिजली की कहानी है जो अपनी मर्जी की मालिक है। वह कहती है कि मर्दों को जब बाहरी जलवा दिखा कर ही लूटा जा सकता है तो कपड़े खोलने की जरूरत ही क्या है। यहां सना शेख नामक किन्नर की सच्ची दास्तां है कि वह कैसे एक लड़के से किन्नर में तब्दील होता है और कैसे रायगढ़ के डांस बारों में आज भी नाचता है। यहां उस करोड़ी बारबाला तरन्नुम की कहानी भी है, जो मुंबई की गलीच गलियों से उठती है और टोपाज बार जा पहुंचती है। उस पर एक रात में 86 लाख रुपए की मोटी रकम स्टांप घोटाले का आरोपी अब्दुल करीम तेलगी लुटाता है। वह कैसे मैच फिक्सिंग कांड और सट्टेबाजी में जा धंसती है। हर लड़की की दास्तां से गुजरते हुए आपको एक अलग कहानी पढ़ने का अहसास होगा, तो दर्जनों कटु सच्चाईयों से भी आप रूबरू होते जाएंगे।
सवाल: क्या आपकी नजर में बारबालाएं देहजीवाएं हैं?
विवेक: हां भी – और नहीं भी। सारी बालबालाएं देह विक्रय से जीवनयापन करती हों, यह भी सच नहीं है। वे भोग के लिए ही बनी हैं, यह भी पूरी तरह सच नहीं है। मैंने ऐसी कई बारबालाएं देखीं हैं, जिन्होंने महज नाच कर ही सारा जीवन गुजारा है। किसी को अपने जिस्म के अंदरूनी हिस्से में झांकने का मौका तक नहीं दिया है। लेकिन वे भी एक तरह से देहजीवाएं इसलिए कहलाई जा सकती हैं क्योंकि वे आखिरकार उत्तेजक व कामुक नृत्य करके पुरुषों की कामोत्तेजना भड़का कर कुछ धन उनकी जेब से निकाल ही लेती हैं। इस तरह से अपने देह के दर्शन से जो कमाई करती हैं, तो वे भी देहजावीओं की एक अलग ही सही, इस श्रेणी में आ खड़ी होती हैं।
सवाल: आपकी किताब क्या है, एक साहित्यिक प्रस्तुति या सत्य आपराधिक साहित्य?
विवेक: दोनों। इसमें किस्सागोई का मजा है तो सत्य अपराध साहित्य का तेवर है। सभी लड़कियों की दास्तां सच्ची है। कुछ लड़कियों के नाम छुपाए हैं, क्योंकि ऐसा करने के लिए उनका आग्रह था। कुछ के नाम छापे हैं क्योंकि वे खुल कर बात करती हैं और उन्हें सामने आऩे से परहेज नहीं। कुछ के नाम व पहचान इसलिए शाया किए हैं क्योंकि वे खबर का हिस्सा रही हैं।
सवाल: बारबालाओं के बीच इतना भरोसा और यकीन कैसे आपने पैदा कर पाए कि वे आपके सामने हर राज फाश करने के लिए तैयार हो जाती थीं?
विवेक: सच तो यह है कि मैंने ऐसा कुछ सायास नहीं किया, जिससे उनके मन पर मेरा भरोसा बैठ जाए। मैं उनकी गाहेबगाहे मदद करता रहा, यकीन कायम होता रहा। जब – जिसकी – जैसी जरूरत रही, मैं काम आया। किसी गलत काम में नहीं, सही इरादे और मुद्दे में। उन्हें यह भी यकीन होता चला गया कि उनके नाम मेरे से बाहर नहीं जाएंगे क्योंकि खबरनवीसी के दौरान यही सबसे बड़ा संकट होता है – विश्वास का संकट। एक बार वह जम जाए तो यह धारा बह निकलती है। एक से दूसरे व्यक्ति पर विश्वास कायम करते जाना भी आसान हो जाता है। बार मालिकों को भी यह पता था कि इस बंदे को गिरोहबाजों की खबरों में दिलचस्पी है, न कि उनके कामकाज में, या लड़कियों में, लिहाजा वे भी सहयोग करते रहे।
सवाल: इस किताब के लेखन के दौरान आपसे ईमेल से सवाल मांगे गए थे?
विवेक: हां, हींजड़ों के एक गुरू ने यह हरकत की तो थी। उन्हें इसलिए फोन किया था ताकि वे अपना कोई शिष्य दे सकें जो आज भी डांस बार में नाचता हो। मैं असल में निक्की जान पर काम करना चाहता था, जब उनसे न मिल सका तो इन किन्नर गुरू से बात की थी। उनकी अंहकारपूर्ण बातों को नजरअंदाज करते हुए मैंने कहा कि सवाल पहले से भेजना संभव नहीं है। मैं कब और क्या व कितने सवाल करूंगा, यह मैं ही तय करूंगा, नकी कोई पूर्व भूमिका हो सकती है लेकिन लेकिन वे किस सीमा तक जाएंगे, यह नहीं कह सकता। हो सकता है कि कुछ चुभने सवाले सवाल भी आ जाएं, जिसके कारण सामने वाला व्यक्ति तड़प कर कुछ राज ही उगल दे। सवाल पहले से भेजने में खतरा यही होता है कि वे कई छलनी लगा कर सवाल छान देते हैं, इसके बाद जो हासिल करना चाहते हैं, वह संभव नहीं रह जाता।
सवाल: क्या यह किताब मीडिया के छात्रों के लिए उपयोगी साबित हो सकती है?
विवेक: मीडिया के छात्रों के लिए तो ऐसी हर किताब उपयोगी है, जो किसी पत्रकार ने लिखी है। उसी धारा की एक किताब बांबे बार भी है। इसके जरिए खोजी या अपराध पत्रकारिता में आने की योजना बना रहे नवोदित पत्रकारों को यह जानने का मौका मिलता है कि काजल की कोठरी में रहते हुए भी कैसे कालिख से दूर रहा जाए। कैसे वे अपने संबंध व संपर्क पुख्ता कर सकते हैं। किस तरह एक खबर को कथा में भी तब्दील कर सकते हैं।
सवाल: बारबालाओं के परिवारों पर आपका लेखन बड़ा दिलचस्प बन पड़ा है।
विवेक: मेरी नजर में वह दिलचस्प नहीं है, उनके जीवन का सबसे दुखद हिस्सा है। वे रात-दिन मर-खप कर पैसे कमाती हैं, उन पर कुछ नाकाम और निकम्मे रिश्तेदार मौज करते हैं। कुछ जनजातियों की लड़कियों को पैदा होते ही इसी काम का प्रशिक्षण उनके पिता और भाई देने लगते हैं। जो मजबूरी में इस धंधे में उतर गई हैं, उनके दोहन हर स्तर पर होता है। यही सब इस किताब में विस्तार से बताने की कोशिश है।
सवाल: बांबे बार की भाषा कहीं-कहीं असामाजिक सी होती जाती है।
विवेक: बांबे बार में जो भाषा इस्तेमाल की है, वह मुंबई डांस बारों की भाषा है। वहां यही भाषा चलती है, यही भाषा समझी जाती है। कहन के स्तर पर यह भाषा खराब लग सकती है। मैंने कोई सहादत हसन मंटो के किस्सों की तरह काली सलावर लिखने की कोशिश नहीं की है। जिस्मानी गढ़न को भाषा देने का प्रयास अपनी तरफ से नहीं किया है। वह जैसा है, वैसा ही पेश किया है। भाषा में खेल करने जाता तो वह सारा कुछ गड्डमड्ड सा हो जाता। कहीं-कहीं यह भाषा के स्तर पर अलग सी भी लगती है तो इसलिए कि बारबालाओं और उनके चाहने वालों के बीच यह आम है। जब तक वह भाषा नहीं आएगी, तब तक वहां का सच्चा खाका खींचना भी संभव नहीं होगा।
सवाल: आप किताबों के सिक्वल लाते हैं, तो क्या इसका भी आएगा?
विवेक: पाठकों ने यदि बांबे बार को सराहा और चाहा, तो जरूर सिक्वल भी आएगी। ऐसे किस्सों-कहानियों की कोई कमी नहीं है मेरे पास। जितना चाहेंगे आ जाएगा।
Bahut hi informative interview hai,kitab parhne ki jigyasa jag uthi.