हमने क्या पा लिया हिंदू या मुसलमां होकर, क्यों न इंसां से मुहब्बत करें इंसां होकर – नक़्श लायलपुरी
पलट कर देख लेना जब सदा दिल की सुनाई दे
मेरी आवाज़ में शायद मेरा चेहरा दिखाई दे
हिंदुस्तानी सिनेमा की कई फिल्मों में आपने यह दिलकश मंज़र देखा होगा।
दो चाहने वालों के दिल की सदा बिन कहे एक दूसरे तक पहुंच जाती है तो अचानक लड़की या लड़का पीछे मुड़कर देखता है।
तब सिने दर्शक भी मुहब्बत के इस ख़ूबसूरत एहसास में भीगकर तरबतर हो जाते हैं।
छात्र जीवन में हम कुछ दोस्त टेबल बजाकर फ़िल्म ‘चेतना’ का यह गीत मिल कर गाते थे, “मैं तो हर मोड़ पर / तुझको दूँगा सदा / मेरी आवाज़ को / दर्द के साज़ को / तू सुने ना सुने!”
तब मैंने दोस्तों से कहा था, अगर मैं कभी मुंबई गया, तो इसके गीतकार नक़्श लायलपुरी से ज़रूर मिलूँगा।
एक कवि सम्मेलन में जब नक़्श साहब से मुलाक़ात हुई तो उन्होंने बताया, “पाँच टुकड़े में बंटी इस धुन पर गीत लिखने में उन्हें सिर्फ़ 10 मिनट लगे थे।
हमारे दोस्त गीतकार हरिश्चंद्र ने यह कवि सम्मेलन कांदिवली पश्चिम में नक़्श लायलपुरी की सदारत में “अनुभूति काव्य संध्या” नाम से सन 1998 में आयोजित किया था।
फ़िल्म राइटर एसोसिएशन के तत्कालीन अध्यक्ष जगमोहन कपूर और महासचिव स्व. राजेंद्र सिंह आतिश इसमें बतौर मुख्य अतिथि मंच पर मौजूद थे।
बतौर संचालक मैंने नक़्श साहब के अशआर से ही काव्य संध्या का आगाज़ किया:
दोस्त कम हैं, न दोस्ती कम है,
हां मगर हुस्ने दिलबरी कम है,
आप से इल्तजा है बस इतनी,
मिलते रहिए कि ज़िंदगी कम है,
कार्यक्रम की समाप्ति पर नक़्श साहब ने मुझसे कहा, “पांडेय जी फ़िल्म राइटर एसोसिएशन को आपकी ज़रूरत है। हम सालाना बैठक में हर साल एक मुशायरा आयोजित करेंगे। उसके निज़ामत की ज़िम्मेदारी आपकी रहेगी”।
अध्यक्ष जगमोहन कपूर और महासचिव राजेंद्र सिंह आतिश ने उनके इस प्रस्ताव पर प्रसन्नता ज़ाहिर की।
अगले दिन मुझे फ़िल्म राइटर्स एसोसिएशन का सदस्य बनाया गया।
एसोसिएशन की सालाना बैठक में मरहूम शायर क़मर जलालाबादी की सदारत में शानदार मुशायरा हुआ।
नक़्श लायलपुरी की शायरी में ज़बान की मिठास, एहसास की शिद्दत और इज़हार का दिलकश अंदाज़ मिलता है।
उनकी ग़ज़ल का चेहरा दर्द और मुहब्बत के शबनमी एहसास की लज़्ज़त से तरबतर है:
जब दर्द मुहब्बत का मेरे पास नहीं था
मैं कौन हूं क्या हूं मुझे एहसास नहीं था
बैठा हूं मैं तन्हाई को सीने से लगाकर
इस हाल में जीना तो मुझे रास नहीं था
शाख़ों को तुम क्या छू आए
कांटों से भी ख़ुशबू.आए
कोई तो हमदर्द है मेरा
आप ना आए आंसू आए
नक़्श लायलपुरी की शायरी के इस समंदर में एक तरफ़ फ़िक्र की ऊँची-ऊँची लहरें हैं तो दूसरी तरफ़ इंसानी जज़्बात की ऐसी गहराई है, जिसमें डूब जाने को मन करता है।
नक़्श साहब की शायरी में पंजाब की मिट्टी की महक, लखनऊ की नफ़ासत और मुंबई के समंदर का धीमा-धीमा संगीत है:
प्यास इतनी है मेरी रूह की गहराई में
अश्क गिरता है तो दामन को जला देता है
हालात की लपटों में झुलसता गया चेहरा
दुनिया मुझे आवाज़ से पहचान रही है
ज़िंदगी के तजुरबात ने उनके लफ़्ज़ों को निखारा, संवारा और शायरी के धागे में इस सलीक़े से पिरो दिया कि उनके शेर ग़ज़ल की आबरु बन गए:
जैसे तस्वीर लटकी हो दीवार से
हाल ये हो गया सोचते-सोचते
रहेगा बनके बीनाई वो मुरझाई सी आंखों में
जो बूढ़े बाप के हाथों में मेहनत की कमाई दे
फ़िल्मी नग़मों में भी जब नक़्श साहब के अल्फ़ाज़ गुनगुनाए गए तो उनमें भी अदब बोलता और रस घोलता दिखाई दिया:
रस्मे-उल्फ़त को निभाएं तो निभाएं कैसे,
मैं तो हर मोड़ पर तुझको दूँगा सदा,
ये मुलाक़ात इक बहाना है,
उल्फ़त में ज़माने की हर रस्म को ठुकराओ,
माना तेरी नज़र में तेरा प्यार हम नहीं,
तुम्हें देखती हूँ तो लगता है ऐसे,
तुम्हें हो न हो पर मुझे तो यकीं है,
कई सदियों से, कई जनमों से,
न जाने क्या हुआ,जो तूने छू लिया,
चाँदनी रात में इक बार तुझे देखा है,
जसवंत राय उर्फ़ नक़्श लायलपुरी का जन्म 24 फरवरी 1928 को लायलपुर (अब पाकिस्तान का फ़ैसलबाद) में हुआ।
सन् 1947 में वे जब बेवतन हुए तो लायलपुर से पैदल चलकर हिंदुस्तान आए और लखनऊ में अपना आशियाना बनाया।
पान खाने और मुस्कराने की आदत उनको यहीं से मिली। उनकी शख़्सियत में वही नफ़ासत और तहज़ीब शामिल हो गई जो लखनऊ वालों में होती है।
लखनऊ की अदा और तबस्सुम उनकी इल्मी और फ़िल्मी शायरी में मौजूद है:
कई ख़्वाब मुस्कुराए सरेशाम बेख़ुदी में
मेरे लब पे आ गया था तेरा नाम बेख़ुदी में
कई बार चाँद चमके तेरी नर्म आहटों के
कई बार जगमगाए दरो-बाम बेख़ुदी में
नक़्श लायलपुरी 1951 में रोज़गार की तलाश में मुम्बई आए और यहीं के होकर रह गए।
लाहौर में तरक़्क़ीपसंद तहरीक का जो जज़्बा पैदा हुआ था, उसे मुम्बई में एक माहौल मिला:
हमने क्या पा लिया हिंदू या मुसलमां होकर
क्यों न इंसां से मुहब्बत करें इंसां होकर
सिने जगत ने उन्हें बेशक़ दौलत, शोहरत और इज़्ज़त दी मगर उनकी सादगी को यहाँ की चमक-दमक और रंगीनियां रास नहीं आईं:
ये अंजुमन, ये क़हक़हे, ये महवशों की भीड़
फिर भी उदास, फिर भी अकेली है ज़िंदगी
मेरी तलाश छोड़ दे तू मुझको पा चूका
मैं सोच की हदों से बहुत दूर जा चुका
नक़्श साहब का मन बच्चे की तरह निर्मल और शख़्सियत आइने की तरह साफ़ थी।
22 अप्रैल 2005 को अपना काव्यसंकलन ‘तेरी गली की तरफ़’ भेंट करते हुए उन्होंने कहा, “अगले महीने मेरे एक दोस्त इस किताब का रिलीज़ फंक्शन आयोजित कर रहे हैं।”
अगले महीने उनके दोस्त का इंतक़ाल हो गया ‘तेरी गली की तरफ़’ का लोकार्पण फिर कभी नहीं हुआ।
एक आंसू गिरा सोचते सोचते
याद क्या आ गया सोचते सोचते
कौन था, क्या था वो, याद आता नहीं
याद आ जाएगा सोचते सोचते
नक़्श लायलपुरी के फ़िल्मी गीतों का एक संकलन प्रकाशित हुआ, ‘आँगन-आँगन बरसे गीत’।
यह किताब उर्दू में है। इसको मैंने हिंदी में रूपांतरित करके नक़्श साहब को सौंप दिया।
उन्हें इस किताब के प्रकाशन के लिए हिंदी प्रकाशक की तलाश थी। 22 जनवरी 2017 को उन्होंने हमेशा के लिए इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
अंत में आप सबके लिए पेश है नक़्श लायलपुरी की एक ग़ज़ल:
कोई झंकार है, नग़मा है, सदा है क्या है?
तू किरन है, के कली है, के सबा है, क्या है?
तेरी आँख़ों में कई रंग झलकते देख़े
सादगी है, के झिझक है, के हया है, क्या है?
रुह की प्यास बुझा दी है तेरी क़ुरबत ने
तू कोई झील है, झरना है, घटा है, क्या है?
नाम होटों पे तेरा आए तो राहत सी मिले
तू तसल्ली है, दिलासा है, दुआ है, क्या है?
होश में लाके मेरे होश उड़ाने वाले
ये तेरा नाज़ है, शोख़ी है, अदा है, क्या है?
दिल ख़तावार, नज़र पारसा, तस्वीरे अना
वो बशर है, के फ़रिश्ता है, के ख़ुदा है, क्या है?
बन गई नक़्श जो सुर्ख़ी तेरे अफ़साने की
वो शफ़क है, के धनक है, के हिना है, क्या है?
– देवमणि पांडेय
लेखक देश के विख्यात कवि एवं गीतकार हैं।
संपर्क: बी-103, दिव्य स्तुति, कन्यापाड़ा, गोकुलधाम, महाराजा टावर के पास, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव (पू), मुंबई 400063 / +9198210 82126