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कमाठीपुरा कथाएं: गिराहक 06: विश्वास

यहां पेश कमाठीपुरा की सच्ची कथाएं किताब ‘कमाठीपुरा‘ का हिस्सा नहीं बन पाईं। सभी पुस्तक-प्रेमियों के लिए लेखक विवेक अग्रवाल ने कुछ कहानियां इंडिया क्राईम के जरिए बतौर तोहफा पेश की हैं। आप भी आनंद उठाएं। – संपादक

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विश्वास

“मैं कुछ नहीं जानती…” मीनल की आवाज़ में गहन उदासी है। वह संभल-संभल कर बात करती है क्योंकि इतने सालों तक कमाठीपुरा में उसे सिर्फ विश्वासघात ही मिले हैं। इन धोखों ने मीनल को हर इंसान और हर बात पर संदेह करना सिखा दिया है। जब संदेह चरम पर पहुंच जाता है, तो निराशा, अकेलेपन, हताशा भरी बातें करने लगती है।

“क्यों नहीं जानती तू? कितने साल हो गए तेरे को इदर?” ग्राहक ने सीधा सा सवाल किया लेकिन मीनल को लगा कि उसे फंसाने की कोशिश हो रही है।

“बचपन से इदरीच है… मां बी येइच काम की, अभी मेई करती है…” मीनल ने साफ झूठ कहा।

“तू झूठ बोली ना मेरे से?” ग्राहक के चहरे पर संदेह नहीं, हल्की नाराजगी है।

“मैं क्यों झूठ बोलेगी?” मीनल ने छद्म दृढ़ता दिखाई।

“तू फलक वोरा है ना!?” अब ग्राहक ने अपना हुकुम का इक्का चला।

मीनल अपना असली नाम सुन कर बेतहाशा सिटपिटाई। ये कौन है? मेरा असली नाम कैसे जानता है? क्या चाहता है?

“नहीं…” मीनल ने झूठ छिपाना चाहा लेकिन चेहरे पर तैर आया। सच सिर्फ आंखों में दिखता है, झूठ ऐसी शै है, जो जिस्म के हर अवयव पर छा जाता है।

“तू मनोहर वोरा की छोटी बेटी है ना? देख, मेरे से झूठ मत बोलना…” ग्राहक ने चेतावनी दी या आग्रह किया, मीनल समझी नहीं। वो चुप लगा गई।

“तेरे गायब होने के बाद मां सदमे से मर गई… मनोहर चाचा उनके सदमे में मर गया… तेरा पागल भाई सड़क पर भूख के मारे अकेला भटकने लगा… एक दिन ट्रक के नीचे आकर वो भी मर गया…” उसकी बातें सुन कर मीनल की आँखों से आंसू का सैलाब आ गया।

“तू?” मीनल की लरजती आवाज निकली। अब वह सहन नहीं कर पाई।

“मैं तेरे बाजू के तीसरे घर में रहता था… टीनू…”

“तरुण!” मीनल को याद हो आया कि ये वही तरुण है, जिसे देख कर उसके दिल में कुछ-कुछ होता था। वो तरुण आज यहां, उसके सामने! कैसे!? क्यों!? क्या वो भी बदनाम गलियों का फेरा लगाने वाला चमड़ीचोर (औरतखोर) है?

“टीनू तू यहां कैसे?” मीनल पिघल उठी।

“सच बताऊं!?” टीनू अब उसके करीब खाट पर बैठ गया।

“हां…” मीनल की आंखें अब टीनू की आखों में घर-आंगन-गलियां तलाशने लगी।

“तेरे पास तीन दिन पहले एक लड़का आया था, उसने पहचान लिया… वही मुझे लाया है…”

“तो क्या?” मीनल सहम गई। उसे लगा कि सारे शहर में उसने कहीं ढिंडोरा तो नहीं पीट दिया?

“किसी से कुछ नहीं कहा, सिर्फ मुझे पता है…” ग्राहक ने सांत्वना दी।

“अब?” मीनल का डर उभर आया।

“अब ये कि मेरे साथ चलो…”

“कहां?”

“दिल्ली… मैं वहीं रहता हूं, मेरे घर में कोई नहीं है… तुम मेरे साथ रहना…”

“तुम्हारी पत्नी!?”

“मैंने शादी नहीं की…”

“क्यों?”

“तुम्हारे लिए…”

मीनल आज फिर एक बार फूट-फूट कर रोई। पहली बार एक मर्द के सीने से लग कर उसे अच्छा लगा। उसके मन में भरोसा जगा। आज उसे विश्वास का असली ग्राहक मिला है।

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