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कमाठीपुरा कथाएं: गिराहक 03: मसखरी

यहां पेश कमाठीपुरा की सच्ची कथाएं किताब ‘कमाठीपुरा‘ का हिस्सा नहीं बन पाईं। सभी पुस्तक-प्रेमियों के लिए लेखक विवेक अग्रवाल ने कुछ कहानियां इंडिया क्राईम के जरिए बतौर तोहफा पेश की हैं। आप भी आनंद उठाएं। – संपादक

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मसखरी

“कपड़े खोल…” ग्राहक की मांग से छाया को अचरज ना हुआ। सभी ऐसा ही तो करते हैं। छाया ने कपड़े फौरन उतार दिए। ग्राहक भी कपड़े खोल कर खड़ा हो गया। तभी ग्राहक ने जो किया, छाया सहम गई।

“अरे क्या करता है तू? ये मेरे कपड़े हैं…” छाया के उतरे कपड़े ग्राहक को पहनते देख कर वह बुरी तरह सिटपिटाई। अब तक तो ग्राहक ने पेटीकोट पहन लिया है। अंगिया के हुक भी पीछे की तरफ लगा लिए हैं। ब्लाऊज पहनने लगा है।

“तू चुप कर, पैसे लेती है ना…” ग्राहक ने घुड़का।

“अरे, जिस काम के पैसे दिए हैं, वो कर ना… ये क्या मसखरी लगाई है तूने!?” ग्राहक की हरकत पर छाया हंस दी। मन के किसी कोने में डरी हुई भी है। पागल सा आदमी है, मार-वार ना दे!

“मसखरी क्या, मेरे को अच्छा लगता है, तेरे से जास्ती तेरे कपड़ों में मजा है… अच्छा बोल कैसी लगती है मैं?”

“पहले दाढ़ी-मूंछ निकाल के आ, तब पता चलेगा तू ‘कैसी है’… अभी तो ‘कैसा है’ लगता है…” छाया की हंसी छूट गई।

“मेरे से उलटा बोलती है, ले तेरे कपड़े, मैं चला…” ग्राहक को गुस्सा आ गया।

“अरे रुक रे, मस्ती में बोली, तू एकदम कड़क लगता है…” ग्राहक के नाराज होने,धंधा खराब होने, के डर से छाया साफ झूठ बोल गई। ग्राहक खुश हो गया। उसने छाया को 50 रुपए एक्स्ट्रा दिए। छाया का दिन बन गया। एक छोटे से झूठ से फायदा होता है, तो झूठ अच्छा है।

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