भारत सत्तर साल बाद भी विश्वशक्ति क्यों नहीं बन सका?
कोरोना के बहाने देश में जो वातावरण बन गया है, उसमें महात्मा गांधी की याद आती है। वही तबलीगी जमात और वही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। दोनों के बीच कबड्डी चल रही है।
गांधीजी ने अंग्रेज सरकार के खिलाफ विकट लड़ाई लड़ी थी, जिसमें तमाम भारतीय उनके साथ हो गए थे। पहले दक्षिण अफ्रीका में, फिर भारत में। भारत में कांग्रेस ने गांधीजी का उपयोग किया।
अंग्रेज सरकार ने कांग्रेस के कुछ नेताओं के साथ मिलीभगत की, जिन्होंने ब्रिटेन में शिक्षा प्राप्त की थी।
जब अंग्रेज सरकार को गांधीजी की विचारधारा भारी पड़ने लगी, तब 13 अप्रैल 1919 को उन्होंने जलियांवाला बाग नरसंहार करवाया और गांधीजी को वहां जाने से रोका।
इस तरह देश में पहली बार गांधीजी के लक्ष्य को लेकर संदेह पैदा किया। इससे भी काम नहीं चला तो गांधीजी की विचारधारा में फच्चर फंसाने के लिए 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गठन हुआ। इसके साल भर बाद तबलीगी जमात बनी। हिंदू-मुसलमान की राजनीति शुरू हुई।
अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट हिंदू-मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक आधार पर खाई खोदी गई। देश के विभाजन के लिए जमीन तैयार हुई।
गांधीजी के प्रयासों से देश तो स्वतंत्र हो गया, लेकिन अंग्रेजों ने कांग्रेस नेताओं के साथ मिल कर जो कूटनीति रची, उससे देश का विभाजन हो गया।
15 अगस्त 1947 को देश दो भागों में बंटकर स्वतंत्र हुआ। इस विभाजन के फलस्वरूप देश में सांप्रदायिकता का जहर फैला।
इसके बाद देश की राजनीति में गांधीजी की कोई उपयोगिता नहीं बची। इस तरह की स्वतंत्रता से वह संतुष्ट भी नहीं थे। सांप्रदायिक भेदभाव के वातावरण में वह कांग्रेस के खिलाफ ही आंदोलन शुरू कर सकते थे। यही कारण रहा होगा कि स्वतंत्रता के बाद उन्हें एक साल भी जीवित नहीं रहने दिया गया।
30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने उन्हें गोली मार दी। गांधीजी पर तोहमत लगाई कि उनकी वजह से देश का विभाजन हुआ।
कांग्रेस गांधीजी की तस्वीर के सहारे सरकार चलाने लगी, आरएसएस ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का सिलसिला जारी रखा। कांग्रेस ने देश में रह गए मुस्लिमों को अपने समर्थन में रखने के लिए जनसंघ को प्रमुख विपक्ष माना। अंग्रेजों को सबने भुला दिया। अंग्रेज जैसी सरकार बना गए थे, वह वैसी ही बनी रही।
भारतीय राजनीति में सांप्रदायिक वैमनस्य स्थाई भाव बन गया। जो सरकार अंग्रेजों की थी, वही कांग्रेस ने चलाई, अब वही सरकार भाजपा चला रही है। ध्रुवीकरण का सिलसिला कायम है।
चारों तरफ लड़ने-झगड़ने, एक दूसरे के खिलाफ जहर उगलने का काम चल रहा है। भोली-भाली जनता बुरी तरह पिस रही है। अंग्रेजों के जमाने में भी वह पिस रही थी, कांग्रेस के जमाने में भी, अब भाजपा के शासन में भी। बीच में कुछ अन्य पार्टियों के प्रधानमंत्री भी बने थे, लेकिन उन्हें कुछ करने का मौका ही नहीं मिला। जनता की पिसाई जारी है।
‘बिग बॉस’ की मनमानी परंपरागत रूप से चल रही है। अंग्रेजों का वायसराय हो, नेहरू हो, इंदिरा गांधी हो या नरेंद्र मोदी, क्या फर्क पड़ता है?
इतनी विशाल जनसंख्या वाला देश सत्तर साल बाद भी हर तरह से पिछड़ा हुआ है। क्या इसे अमेरिका से भी बड़ी विश्व की महाशक्ति नहीं बन जाना चाहिए था? क्या भारत में बुनियादी परिवर्तन कभी हो सकता है?
श्रषिकेश राजोरिया की फेसबुक वॉल से साभार
10 अप्रैल 2020
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लेख में प्रकट विचार लेखक के हैं। इससे इंडिया क्राईम के संपादक या प्रबंधन का सहमत होना आवश्यक नहीं है – संपादक