Litreture

सहज सरल ‘हिंदी की विकास यात्रा’ पर चलिए

विवेक अग्रवाल

‘हिंदी की विकास यात्रा’ पढ़ना बहुत ही रोचक और ज्ञानवर्धक साबित हुआ। महज 285 पृष्ठों में हिंदी का विकास क्रम शामिल करना बहुत दुष्कर कार्य है, जो लेखकों ने बेहद सरलता से कर दिखाया है। ये कहूं कि डॉ युवाल नोआ हरारी ने जिस तरह लाखों वर्ष के मानव इतिहास एक किताब ‘सेपीयंस’ में समाहित कर दिया है, उसी तरह केशव राय और अनंत जोशी ने हिंदी की विकास यात्रा एक किताब में समेट दी है। इस किताब की सबसे अच्छी बात इसकी सहज और सरल भाषा है, जिसके कारण इसे पढ़ते हुए कोई शोध ग्रंथ पढ़ने जैसी बोझिल नहीं लगती है।

दुनिया के 175 देशों में हिंदी आज बोली-समझी जा रही है। विश्व की एक प्रमुख भाषा बन कर उभर रही है। विश्व बिरादरी के बीच हिंदी को अधिकाधिक व्यावहारिक बनाते हुए, इसकी पहुंच बढ़ाने के संभावनाओं पर भी लेखक बात करते हैं।

हिंदी के इतिहास पर बहुतेरे लोगों ने, बहुतेरा अध्ययन और लेखन किया है लेकिन उसके अलग-अलग कालखंडों या विविध आयामों पर ध्यान दिया है। इतने वर्षों के पठन-पाठन में, पहली बार एक किताब सामने आई है, जो हिंदी के सभी आयामों का विवेचन एक साथ कर रही है। इसे भाषा, वैज्ञानिकता, साहित्य, आधुनिक मीडिया व तकनीक से जोड़ कर पेश किया है। यह किताब हिंदी साहित्य के विद्यार्थियों, शोधार्थियों और हिंदीसेवकों के लिए बहुत जरूरी बन जाती है।

यह किताब 18 अध्याय में विस्तारित है। हर अध्याय अपने तरीके से हिंदी की बात करता है। हिंदी आदि से अनादि तक किस तरह चलती गई और लोक भाषा बन गई, वह भी बड़ी ही रोचकता से सामने आती है। हिंदी के विरोध और राष्ट्रभाषा के बदले राजभाषा बनाने के पीछे की राजनीति पर लिखते हुए लेखकों को संकोच नहीं हुआ। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के संघर्ष और प्रयास आजादी के बाद भी हुए और आज भी जारी हैं, जिसे लेकर लेखकों ने काफी अच्छी जानकी दी है। भाषा के संकट पर भी लेखकों ने चिंता जताई है। अंग्रेजी हटाओ आंदोलन के बारे में भी लिखा है। दक्षिण भारत में हिंदी भाषा की लहर और उसके प्रमुख समर्थकों या हिंदीसेवियों की जानकारी भी है। नागरी प्रचारिणी सभा और दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा को भी छोटे ही सही लेकिन अलग-अलग अध्यायों में पेश किया है। इसके अलावा रंगमंच, पत्रकारिता, फिल्म, विज्ञान, गणित, कंप्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल, सॉफ्टवेयर, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की संचार क्रांति में भी हिंदी प्रमुख भूमिका अदा कर रही है, यह भी लेखकों ने बहुत ही सरल भाषा में समझाया है।

लेखकों ने कंप्यूटरों में हिंदी के मानकीकरण और इन-स्क्रिप्ट कीबोर्ड की जरूरत पर बल दिया है। उनका मानना है कि जब तक अंग्रेजी की तरह हिंदी में भी एक ही कीबोर्ड नहीं होगा, तब तक आधुनिक उपकरणों में हिंदी के प्रयोग के लिए परेशानियां और चुनौतियां बनी रहेंगी। हिंदी तेजी से तरक्की नहीं कर पाएगी।

लेखक क्षुब्ध होकर ‘हिंदी भारत बनाम अंग्रेज इंडिया’ अध्याय का आरंभ भी इन पंक्तियों से करते हैं, “1947 में भारत आजाद हुआ, अंग्रेज गए, अंग्रेजी का साया नहीं। राजभाषा का दर्जा मिला, सर्व भारतीय राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिला। हिंदी को उत्तर भारत में शुरुआती दौर में समर्थन मिला पर धीरे-धीरे शिक्षा और रोजगार की मांग के चलते हिंदीभाषी प्रदेशों में भी लोगों का रुझान अंग्रेजी शिक्षा की तरफ बढ़ता गया। दक्षिण में हिंदी को सुनियोजित ढंग से लागू न करने की वजह से विरोध का सामना करना पड़ा।” लेखक उस मानसिकता पर भी आघात करते हैं कि हम पहले ‘हिंदी मेरी जान – मेरा हिंदुस्तान’ कहा करते थे लेकिन आज हमारे बीच ‘आई आलसो स्पीक हिंदी’ या ‘आई कैन अंडरस्टैंड हिंदी, बट कांट रीड एंड राइट’ जैसे जुमले बोलने वाले बहुतायत में पाए जाते हैं।

इसके बावजूद हिंदी भाषा के सुनहरे भविष्य पर लेखक इत्मीनान रखते हैं साथ ही वे चेतावनी देते हैं कि हिंदी भाषा कमजोर हो गई, तो देश और समाज का सबसे बड़ा आधार खो जाएगा, पहचान खो जाएगी। हम कब तक सदियों की गुलामी की दुहाई देकर अपनी भाषा की उपेक्षा कर, मूकदर्शक बने रहेंगे। वे विश्वास जताते हैं कि हम भारतीय अपनी भाषा और सांस्कृतिक विरासत की रक्षा के लिए जागेंगे। हमें विश्वास है कि हिंदी के तमाम संगठन मिल कर हिंदी के सम्मान हेतु नई पहल करेंगे और हिंदी को अंतरराष्ट्रीय मंच पर स्थापित करेंगे।

और हां, यह कहते हुए भी मैं संकोच महसूस नहीं करता हूं कि जब केशव राय ने इस किताब के बारे में बताया था, तो पहले-पहल मैं बहुत उत्साहित नहीं हुआ क्योंकि इस विषय पर इतना लिखा गया है कि मुझे लगा इस पर कोई क्या नया लिख देगा। जब किताब हाथ आई और चंद पृष्ठ कौतूहलवश पलटे, तो पता चला कि यह विस्तृत शोध करके, आम भाषा में लिखी बेहद महत्वपूर्ण किताब है।

यह किताब हर पाठशाला, विश्वविद्यालय, महाविद्यालय, हर निजी और सरकारी विभाग में, और हर निजी, सरकारी, संगठनों या चैरिटेबल ट्रस्ट की लाइब्रेरी में इस पुस्तक की कम से कम 10 प्रतियां तो होनी चाहिएं। इतना ही नहीं हिंदी पाठकों को हर ग्रंथपाल यह किताब जरूर बताए और पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करे ताकि हिंदी भाषा के संपूर्ण व्यक्तित्व से हिंदी तथा अहिंदीभाषी परिचित हो सकें। यदि यह किताब समस्त देश के 10वीं या 11वीं के बच्चों को पढ़ाने के लिए अभ्यासक्रम में शामिल की जा सके, तो सोने पर सुहागा होगा।

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