दादा अर्थात जटिया जी दर्शन?
निरुक्त भार्गव, वरिष्ठ पत्रकार, उज्जैन
हमारे घर में बड़े भाइयों को ‘दादा’ कहने की परंपरा है. एक से अधिक ज्येष्ठ भाई होने पर छोटे दादा अथवा फिर नाम लेकर दादा कहा जाता है. प्रकारांतर में ये शब्द यानी ‘दादा’ पहलवानी में उतर आया, हालांकि तब तक शुचिता जबरदस्त रूप से महत्व रखती थी! ऐसा दौर भी आया जब दादा-पहलवानों ने सार्वजनिक जीवन को मुहाल कर दिया, पर उन्हें “भैय्या” और “दयालु” जैसे विशिष्ट अलंकरणों से नवाजा गया! आज तो हालात ये हैं कि उक्त केटेगरी के सभी लोग उच्चाधिकार प्राप्त और अति-विशिष्ट सज्जनों का प्रोटोकॉल हासिल किए हुए हैं…
मेरा दृढ़ मत है कि श्री सत्यनारायण जटिया को यदि दादा कहा जाता है, तो शायद उन्होंने अपने सार्वजनिक जीवनकाल के बीते 40-50 सालों में इस संबोधन के पीछे के भावों को जीने का प्रयास किया होगा! 75 बसंत देख चुके जटियाजी अत्यंत साधारण परिवार से हैं और उनका लालन-पालन जावद (जिला नीमच) के पैतृक गांव में हुआ.
बोल-चाल में निपुण होने के कारण उन्हें तत्कालीन जनसंघ ने आगर (तत्कालीन शाजापुर जिला) से दो बार विधान सभा का टिकट दिया, 1970 के दशक में और वे सफल भी रहे और असफल भी! लेकिन आपातकाल (1977) उठते ही महाकाल जी ने उनको निहार लिया और वे उज्जैन के सांसद बन गए!
इंदिराजी के नेतृत्व में 1980 के दौर में जब कांग्रेस पार्टी का सिक्का हर तरफ चल रहा था, युवा जटिया ने संसद में ही नहीं, सड़कों तक ही नहीं बल्कि ‘कथित’ नाटे कद के होने के बावजूद पूरे विश्व में अपनी वाकपटुता और संघर्षशीलता के बदौलत उज्जैन का नाम चर्चा में स्थापित कर दिया था.
आरएसएस के संस्कार उनमें इतने गहरे तक घर किए हुए थे कि 1990 के दशक में जब बीजेपी प्रभावशील हुई और मध्यप्रदेश सहित कई राज्यों में सत्ता में काबिज़ हुई तो उन्हें कबाड़ियों और बिचौलियों ने हैरान-हैरान कर दिया, पर वे अडिग रहे!
पंडित अटलजी के तो वे प्रिय रहे: शालीनता और समरसता के चलते! उन्हें 1990 के दशक में ‘एनडीए’ सरकार में सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार पर काबिना मंत्री बनाया गया. तीन-तीन मंत्रालयों में वे इस दौर में रहे. उन्होंने क्या किया और क्या नहीं, ये बहस का मुद्दा बनना ही चाहिए! इस तथ्य को कोई भी नकार नहीं सकता कि 2009 में जटिया जी जैसे तमाम दिग्गजों को जनता ने अपनी नज़रों से उतार दिया! आम मतदाता ने इन जैसे जनप्रतिनिधियों के व्यवहार, कार्य और उपलब्धियों सहित कई मुद्दों को ध्यान में रखा और अंतत: एक नई पौध को अवसर दिया, आगे बढ़ने का, समाजसेवा करने का…
कोई एक दशक बीत गया कि जटियाजी की खनक सुनाई नहीं दी, यूं वे कहीं फालतू नहीं बैठे! दिल्ली में आलिशान बंगला है ही, सो राज्य सभा का सुख भोग लिया! भोपाल का क्या कहें, संगमरमर से बनी कोठी अभेद्य है ही सो कहीं कोई तकलीफ़ कभी आनी नहीं है! उनके विरोधियों ने भी तमाम-तमाम किस्से फैला ही रखे हैं!
…अब अगर वो अपनी उज्जैन की कर्मस्थली में बाकायदा सज-धज कर दोबारा और बार-बार उपस्थिति दर्ज करवा रहे हैं, तो अच्छा है… शायद उनका कोई संवैधानिक पद पर जाने का रास्ता बन रहा है…शुभकामनाएं!
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लेखक उज्जैन के वरिष्ठ पत्रकार हैं। विगत तीन दशकों से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। संप्रति – ब्यूरो प्रमुख, फ्री प्रेस जर्नल, उज्जैन
(उक्त लेख में प्रकट विचार लेखक के हैं। संपादक मंडल का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।)