Litreture

चांद को छूने वाले इंसां देख तमाशा लकड़ी का – ज़फ़र गोरखपुरी

किसी मासूम बच्चे के तबस्सुम में उतर जाओ,

तो शायद ये समझ पाओ, ख़ुदा ऐसा भी होता है.

शायर ज़फ़र गोरखपुरी का यह शेर मैं जहां भी पढ़ता हूं, वहां ज़बरदस्त दाद मिलती है, तालियां बजती हैं, बच्चों के मां-बाप ख़ुश हो जाते हैं। मैं इस शेर को इसके मतले के साथ पेश करता हूं:

इरादा हो अटल तो मोजज़ा ऐसा भी होता है

दिए को ज़िंदा रखती है हवा, ऐसा भी होता है

किसी मासूम बच्चे के तबस्सुम में उतर जाओ,

तो शायद ये समझ पाओ, ख़ुदा ऐसा भी होता है

ज़फ़र साहब जब नौजवान थे, तब एक नौजवान क़व्वाली गायक अपनी पहचान बनाने के लिए भटक रहा था। उसका नाम था युसूफ़ आज़ाद।

ज़फ़र साहब से युसूफ़ आज़ाद ने एक ऐसी क़व्वाली लिखने की गुज़ारिश की, जिसके दम पर उन्हें नाम और पहचान मिल जाए।

ज़फ़र साहब ने उन्हें मशवरा दिया कि अधिकांश क़व्वाल सिर्फ़ मुहब्बत की शायरी गाते हैं। मैं तुम्हारे लिए एक अलग किस्म की क़व्वाली लिख देता हूं। उससे तुम्हें जल्दी पहचान मिलेगी।

ज़फ़र साहब ने अपने इस नौजवान दोस्त के लिए लिखा:

चांद को छूने वाले इंसां देख तमाशा लकड़ी का।

इसमें यह बताया गया था कि बचपन से लेकर मरने तक इंसान के जीवन में लकड़ी क्या रोल अदा करती है।

युसूफ़ आज़ाद की आवाज़ में यह क़व्वाली इतनी ज़्यादा लोकप्रिय हुई कि कई और युसूफ़ आज़ाद पैदा हो गए। मसलन – बड़े युसूफ़ आज़ाद, छोटे युसूफ़ आज़ाद, असली युसूफ़ आज़ाद इत्यादि।

पचास साल पहले के उस दौर में ज़फ़र साहब के पास टेलीफ़ोन नहीं था मगर फ़िल्म वालों ने कुर्ला की टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में उन्हें ढूंढ निकाला। फ़िल्म “पुतलीबाई” में उन्होंने लिखा:

कितने बेशर्म आशिक़ हैं ये आज के

धीरे धीरे कलाई लगे थामने

इनको उंगली थमाना ग़ज़ब हो गया

फ़िल्म “नूर ए इलाही” में उन्होंने लिखा:

बड़ा लुत्फ़ था जब कुंवारे थे हम तुम”

ज़फ़र साहब की इन क़व्वालियों ने संगीत जगत में धूम मचा दी। मंच के क़व्वाली गायकों ने इन्हें गांव-गांव तक पहुंचा दिया।

ज़फ़र साहब क़व्वाली लेखक नहीं बनना चाहते थे इसलिए क़व्वाली के जो प्रस्ताव आए, उन्होंने लिखने से मना कर दिया।

उठा कर अपनी शमओं का उजाला दे दिया मैंने

हवा बरसों की भूखी थी निवाला दे दिया मैंने

मैं बादल था मुझे तो धज्जियां होना था वैसे भी

ज़मीं तुझको तो सब्ज़े का दुशाला दे दिया मैंने

मशहूर फ़िल्म लेखक और अभिनेता कादर ख़ान ने ‘शमा’ फ़िल्म बनाई और गीत लिखने की ज़िम्मेदारी ज़फ़र साहब को सौंपी।

‘शमा’ के सारे गाने पसंद किए गए। लता जी की आवाज़ में “चांद अपना सफ़र ख़त्म करता रहा” गीत तो बेहद लोकप्रिय हुआ।

इस फ़िल्म की कामयाबी के बाद कादर ख़ान ने ज़फ़र साहब को ऑफर दिया कि आप कुर्ला छोड़कर अंधेरी आ जाइए।

पांच साल तक आपके मकान का किराया मैं अदा करूंगा।

कादर ख़ान के इस प्रस्ताव को ज़फ़र साहब ने विनम्रता से ठुकरा दिया। उन्होंने जवाब दिया, “मैं एक स्कूल में पढ़ाता हूं। बच्चों के साथ मेरा जो रिश्ता है मैं उसे रिटायरमेंट तक कायम रखना चाहता हूं। मैं स्कूल की नौकरी नहीं छोड़ूंगा।”

जगजीत सिंह और पंकज उदास जैसे गायकों की आवाज़ में ज़फ़र साहब की ग़ज़लें लोकप्रिय हुईं।

पाकिस्तान के भी कई गायकों ने उनकी ग़ज़लें गाईं। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शंकर राव चव्हाण ज़फ़र साहब के बहुत बड़े प्रशंसक थे।

एक समय ऐसा आया कि सरकारी कोटे से ज़फ़र साहब को अंधेरी के शास्त्री नगर में अपना घर मिल गया। यहां रह कर उन्होंने फ़िल्म जगत को कई अच्छे गीतों से समृद्ध किया।

ये आईने जो तुम्हें कम पसंद करते हैं

इन्हें पता है तुम्हें हम पसंद करते हैं

किताबें बहुत सी पढ़ी होंगी तुमने

कभी कोई चेहरा भी तुमने पढ़ा है

ज़फ़र साहब ने मुझसे कहा था कि बतौर संचालक जब मैं उन्हें कविता पाठ के लिए आमंत्रित करूं तो उनके फ़िल्मी योगदान का ज़िक्र नहीं करूं। वे मानते थे कि साहित्य अलग है और सिनेमा अलग है।

अब भीक मांगने के तरीक़े बदल गए

लाज़िम नहीं कि हाथ में कासा दिखाई दे

नेज़े पे रखके और मेरा सर बुलंद कर

दुनिया को इक चिराग़ तो जलता दिखाई दे

शहर के अज़ाब, गांव की मासूमियत और ज़िंदगी की वास्तविकताओं को सशक्त ज़ुबान देने वाले शायर ज़फ़र गोरखपुरी ऐसे ख़ुशनसीब शायर थे, जिसने फ़िराक़ गोरखपुरी, जोश मलीहाबादी, मजाज़ लखनवी और जिगर मुरादाबादी जैसे लीजेंड शायरों से अपने कलाम के लिए दाद वसूल की।

सिर्फ़ 22 साल की उम्र में मुशायरे में फ़िराक़ साहब के सामने ग़ज़ल पढ़ी:

मयक़दा सबका है सब हैं प्यासे यहाँ, मय बराबर बटे चारसू दोस्तो!

चंद लोगों की ख़ातिर जो मख़सूस हों, तोड़ दो ऐसे जामो-सुबू दोस्तो!

इसे सुन कर फ़िराक़ साहब ने सरेआम ऐलान किया था कि ये नौजवान बड़ा शायर बनेगा।

उस दौर में ज़फ़र गोरखपुरी प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े हुए थे। उनकी शायरी से शोले बरस रहे थे।

फ़िराक़ साहब ने उन्हें समझाया, “सच्चे फ़नकारों का कोई संगठन नहीं होता। वे किसी संगठन में फिट ही नहीं हो सकते। अब विज्ञान, तकनीक और दर्शन का युग है। इन्हें पढ़ना होगा। शिक्षितों के युग में कबीर नहीं पैदा हो सकता। वाहवाही से बाहर निकलो।”

वक़्त होठों से मेरे वो भी खुरचकर ले गया

एक तबस्सुम जो था दुनिया को दिखाने के लिए

देर तक हंसता रहा उन पर हमारा बचपना

तजरुबे आए थे संजीदा बनाने के लिए

फ़िराक़ साहब की नसीहत का ज़फ़र गोरखपुरी पर गहरा असर हुआ। वे संजीदगी से शायरी में जुट गए।

वह वक़्त भी आया जब उर्दू की जदीद शायरी के सबसे बड़े आलोचक पद्मश्री डॉ.शमशुर्रहमान फ़ारूक़ी ने लिखा, “ज़फ़र गोरखपुरी की बदौलत उर्दू ग़ज़ल में पिछली कई दहाइयों से एक हलकी ठंडी ताज़ा हवा बह रही है। इसके लिए हमें उनका शुक्रिया और ख़ुदा का शुक्र अदा करना चाहिए।”

ज़बां पर आ गए छाले मगर ये तो खुला हम पर

बहुत मीठे फलों का ज़ायक़ा ऐसा भी होता है

तुम्हारे ही तसव्वुर की किसी सरशार मंज़िल में

तुम्हारा साथ लगता है बुरा, ऐसा भी होता है

ज़फ़र गोरखपुरी ने विशिष्ट और आधुनिक अंदाज़ अपनाकर उर्दू ग़ज़ल के क्लासिकल मूड को नया आयाम दिया।

उनकी शायरी में विविधरंगी शहरी जीवन के साथ-साथ लोक संस्कृति की महक और गांव के सामाजिक जीवन की मनोरम झांकी है।

इसी ताज़गी ने उनकी ग़ज़लों को आम आदमी के बीच लोकप्रिय बनाया। उनकी विविधतापूर्ण शायरी ने एक नई काव्य परम्परा को जन्म दिया।

उर्दू के फ्रेम में हिंदी की कविता को उन्होंने बहुत कलात्मक अंदाज में पेश किया।

यूं बज़ाहिर हम से हम तक फ़ासला कुछ भी न था

लग गई एक उम्र अपने पास आने के लिए

मैं ज़फ़र ता-ज़िंदगी बिकता रहा परदेस में

अपनी घरवाली को एक कंगन दिलाने के लिए

ज़फ़र गोरखपुरी ने बाल साहित्य के क्षेत्र में भी सराहनीय योगदान दिया। उनकी रचनाएं महराष्ट्र के शैक्षिक पाठ्यक्रम में पहली से लेकर बीए तक के कोर्स में पढाई जाती हैं।

ज़फ़र साहब की कभी-कभी अपनी शायरी में सेंस आफ ह्यूमर का रोचक इस्तेमाल करते हैं:

ये लोग कैसे अचानक अमीर बन बैठे

ये सब थे भीक मेरे साथ मांगने वाले

इत्तिफ़ाक़न बेवकूफ़ों के क़बीले में ज़फ़र,

मैं ही इक होशियार हूं फिर क्यों न सरदारी करूं.

गोरखपुर ज़िले की बासगांव तहसील के बेदौली बाबू गांव के मूल निवासी ज़फ़र गोरखपुरी ने मुंबई को अपना कर्मक्षेत्र बनाया।

सन 1952 में उनकी शायरी की शुरुआत हुई। उर्दू में ज़फ़र गोरखपुरी के पांच संकलन प्रकाशित हुए।

हिंदी में उनकी ग़ज़लों का संकलन आर-पार का मंज़र नाम से सन् 1997 में प्रकाशित हुआ।

उर्दू दैनिक इंक़लाब में मेरी एक ग़ज़ल प्रकाशित हुई।

एक शायर ने ज़फ़र साहब को फ़ोन करके कहा, आपके शागिर्द देवमणि पांडेय की इंक़लाब में बड़ी अच्छी ग़ज़ल शाया हुई है।

ज़फ़र साहब ने जवाब दिया, “पांडेय जी मेरे शागिर्द नहीं हैं। वो मेरे दोस्त हैं। मुझसे अपनी ग़ज़लों पर दोस्ताना मशविरा लेते हैं। मैं भी अपने दोहे और गीत पर उनसे दोस्ताना मशविरा लेता हूं। हमारा यह रिश्ता दोस्ती का है।”

उर्दू में दोहे की नई बहरें भी ईजाद की गईं। ज़फ़र साहब का कहना था कि जो परंपरा हमें संत कवियों से प्राप्त हुई है, दोहा उसी तरह होना चाहिए यानी 13 और 11 मात्रा के चरण में।

एक बार ज़फ़र साहब ने मुझे एक दोहा सुनाकर मशविरा मांगा:

लिखने को सात आसमां, पढ़ने को पाताल.

ले देकर कुल ज़िंदगी, पैंसठ सत्तर साल.

मैंने उन्हें मशवरा दिया कि ‘सात’ शब्द में एक मात्रा ज़्यादा हो रही है। ‘सत’ का वजन आ रहा है।

उन्होंने फ़रमाया कि मैं चाहूं तो एक मात्रा कम कर के वज़्न बराबर कर सकता हूं। मगर हमारे यहां सात आसमां का तसव्वुर है। इसलिए यहां मैंने जानबूझकर आज़ादी ली है। जो शायरी के क़द्रदान हैं वो सात और आसमां लफ़्ज़ को आपस में मिलाकर सातास्मां पढ़ेंगे तो वज़्न बराबर हो जाएगा।

ज़फ़र साहब के दोहों में आज के दौर की दास्तान होने के साथ-साथ देहाती ज़िंदगी का उल्लास भी है, और दर्द भी:

घरवाली को रात दिन, मनिआर्डर की आस.

माता अपने लाल की, चिट्ठी बिना उदास.

वो दिल जिसमें दर्द है, उसकी ये पहचान.

जल जाए तो दीप है, सुलगे तो लोबान.

जा कर बैठें चार पल, किन पेड़ों के पास.

ज़फ़र हमारे भाग्य में, शहरों का बनवास.

कौन बसंती धो गई, नदी में अपने गाल.

तट ख़ुशबू से भर गया, सारा पानी लाल.

ज़फ़र साहब ने अपने अदबी गीतों की पांडुलिपि तैयार कर ली मगर प्रकाशित न हो सकी।

उन्होंने अपने कई गीत मुझे सुनाए थे। उनके गीत दिल को छूते हैं क्योंकि उसमें अपनी मिट्टी की ख़ुशबू, एहसास की शिद्दत और रिश्तों की सुगंध है।

मिसाल के तौर पर एक गीत की चंद लाइनें देखिए:

ओ री सखी! ये डलिया बुनना कैसा नीक लगे

सखी उन्होंने लिक्खा था पिछली दीवाली में

बुन रखना इक डलिया सावन की हरियाली में

रोटी बासी लगती है स्टील की थाली में

साजन खा न सकें जी भर के क्या ये ठीक लगे

ओ री सखी! ये डलिया बुनना कैसा नीक लगे

उर्दू-हिंदी के ख़ज़ाने में ज़फ़र गोरखपुरी के गीत एक क़ीमती इज़ाफ़ा हैं। यूँ कहा जाए कि ये गीत ऐसे मोड़ का पता देते हैं, जहाँ से गीतों का एक नया क़ाफ़िला आगे की ओर रवाना होगा।

अंत में आप सबके लिए पेश है ज़फ़र गोरखपुरी की एक ग़ज़ल:

बदन कजला गया तो दिल की ताबानी से निकलूंगा

मै सूरज बनके इक दिन अपनी पेशानी से निकलूंगा

मुझे आंखों में तुम जां के सफ़र की मत इजाज़त दो

अगर उतरा लहू में फिर न आसानी से निकलूंगा

नज़र आ जाऊंगा मैं आंसुओं में जब भी रोओगे

मुझे मिट्टी किया तुमने तो मैं पानी से निकलूंगा

मैं ऐसा ख़ूबसूरत रंग हूँ दीवार का अपनी

अगर निकला तो घरवालों की नादानी से निकलूंगा

ज़मीरे-वक़्त में पैवस्त हूं मैं फांस की सूरत

ज़माना क्या समझता है कि आसानी से निकालूंगा

यही इक शै है जो तनहा कभी होने नहीं देती

ज़फ़र मर जाऊंगा जिस दिन परेशानी से निकलूंगा

देवमणि पांडेय

लेखक देश के विख्यात कवि एवं गीतकार हैं।

संपर्क: बी-103, दिव्य स्तुति, कन्यापाड़ा, गोकुलधाम, महाराजा टावर के पास, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव (पू), मुंबई 400063 / +9198210 82126

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