हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं, हमसे ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं – जिगर मुरादाबादबादी
उनका जो काम है वो अहले सियासत जानें,
अपना पैग़ाम मुहब्बत है जहां तक पहुंचे
जिगर मुरादाबादी का यह शेर बहुत मक़बूल हुआ। इसकी प्रगतिशीलता के चलते कई बार लोग इसके साथ फ़ैज़ साहब का नाम जोड़ देते हैं।
जिगर साहब की ज़़िदगी किसी फ़िल्मी पटकथा से कम नहीं है। छोटे पर्दे पर उनकी दास्तान पेश भी की जा चुकी है।
जिगर साहब की मुहब्बत और शराबनोशी के तमाम क़िस्से आज भी फ़ज़ाओं में तैर रहे हैं:
हर तरफ़ छा गए पैग़ाम ए मुहब्बत बन कर,
मुझसे अच्छी रही क़िस्मत मेरे अफ़सानों की.
सबको मारा जिगर के शेरों ने,
और जिगर को शराब ने मारा.
जिगर साहब अपने दौर के बेहद लोकप्रिय शायर थे। उनकी मौजूदगी मुशायरों के कामयाबी की गारंटी मानी जाती थी।
उनकी शायरी में मुहब्बत की कशिश और दिलकशी है। फ़िक्र और जज़्बात के मुख़्तलिफ़ रंगों की मौजूदगी है।
उनकी शायरी सीधे सामयीन यानी श्रोताओं के दिल के तार झंकृत कर देती है:
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है
आँसू तो बहुत से हैं आँखों में ‘जिगर‘ लेकिन
बिँध जाये सो मोती है रह जाये सो दाना है
ऊपर वाले ने जिगर साहब को एक ऐसा पुरअसर तरन्नुम अता किया था कि जिसे सुनकर लोग झूम उठते थे।
मुशायरों में उनकी इतनी मांग थी कि एक मुशायरे के लिए घर से बाहर निकलते तो चार-छ: और मुशायरे करके घर वापसी में उन्हें महीनों लग जाया करते।
उस दौर के नौजवान शायर उनके अनुकरण में बड़े-बड़े बाल और दाढ़ी रखते मगर किसी और को वैसी शोहरत नसीब नहीं हुई।
इक लफ़्ज़े-मुहब्बत का अदना ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है
क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है
जिगर मुरादाबादी का जन्म 6 अप्रैल 1890 को वाराणसी में हुआ। बाद में उनके वालिद मुरादाबाद में बस गए।
जिगर साहब के नाम के साथ मुहब्बत की कई कहानियां मंसूब हैं। वे बारह-तेरह साल की उम्र में ही शायरी करने लगे थे।
उनका मिज़ाज आशिक़ाना था और तबीयत से वे हुस्नपरस्त थे। उनकी शायरी ने कमाल किया।
वक़्त ने बड़ी जल्दी उन्हें शोहरतयाफ़्ता शायर की जमात में खड़ा कर दिया।
लाखों में इंतिख़ाब के क़बिल बना दिया
जिस दिल को तुमने देख लिया दिल बना दिया
जिगर साहब की पहली मुहब्बत
जिगर साहब ने नौजवानी की दहलीज़ पर और शोहरत के ज़ीने पर एक साथ क़दम रखा।
कहा जाता है कि उसी वक़्त वे आगरे की एक तवायफ़ वहीदन पर फ़िदा हो गए। उनके कई रक़ीब भी थे।
उन्होंने इज़हारे-मुहब्बत कर दिया। उस रक़्क़ासा को कोठे की शानो-शौक़त, ऐशो-आराम और शोहरत की बुलंदी छोड़ कर नीचे उतरना गवारा ना था।
अंजाम ये हुआ कि जिगर साहब का दिल टूट गया। मायूसी के आलम में उन्होंने शराब को गले लगा लिया।
क्या चीज़ थी क्या चीज़ थी ज़ालिम की नज़र भी
उफ़! करके वहीं बैठ गया दर्द-ए-जिगर भी
जिगर साहब की दूसरी मुहब्बत
वक़्त गुज़रने के साथ दर्द की शिद्दत में कुछ कमी आई तो जिगर साहब मैनपुरी की एक गायिका शीरज़न पर मर मिटे।
ख़ूबसूरत होने के साथ-साथ उसकी गायकी में भी जादुई असर था। जिगर साहब ने उसके सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया।
उससे भी शोख़तर हैं उस शोख़ की अदाएं
कर जाएं काम अपना लेकिन नज़र न आएं
शीरज़न ने उनका प्रस्ताव मंजूर कर लिया। जिगर साहब की शरीके-हयात बन कर वह उनके घर में दाख़िल हो गई और चंद दिनों में ही उसका दख़ल भी शुरू हो गया।
उस गायिका को घर की पाबंदियां और परदादारियां रास नहीं आईं। आज़ाद हवा में सांस लेने के लिए उसने दहलीज़ के बाहर क़दम रख दिया।
जिगर साहब को तलाक़ दे दिया। दूसरी बार जिगर साहब का दिल टूटा तो मयख़ाने में उनका आना-जाना पहले से ज़्यादा हो गया।
हमने सीने से लगाया दिल न अपना बन सका
मुस्कुराकर तुमने देखा दिल तुम्हारा हो गया
जिगर साहब की तीसरी मुहब्बत
तर्क़े-तालुकात के बाद जिगर साहब की ज़िंदगी दर्द के साए में बसर हो रही थी। शाम की तन्हाई को शराब में डुबोने के बावजूद उन्हें सुकून हासिल नहीं हो रहा था।
ग़म से निजात पाने के लिए वे अपने उस्ताद असग़र गोंडवी की शरण में चले गए। असग़र साहब की सोहबत में उनकी शायरी में सूफियाना रंग आया।
एक दिन असग़र साहब को पता चला कि जिगर साहब उनकी साली को बड़ी हसरत भरी निगाहों से देखते हैं।
दिल में किसी के राह किए जा रहा हूं मैं
कितना हसीन गुनाह किए जा रहा हूं मैं
असग़र साहब ने अपनी बेगम से मशवरा किया। जिगर साहब के सामने यह शर्त रखी गई कि अगर वे शराब से तौबा कर लें, तो साली के साथ उनका निकाह कर दिया जाएगा। जिगर साहब ने शर्त मंज़ूर कर ली।
निकाह हो गया मगर कुछ दिन बाद वे अपना वादा भूल गए। उन्होंने फिर मयख़ाने की तरफ़ क़दम बढ़ा दिए।
इस वादाख़िलाफ़ी पर उस्ताद असग़र साहब ने अपना फ़ैसला सुना दिया, “शराब छोड़ दो या मुहब्बत छोड़ दो।”
जिगर साहब ने राहते-जां के लिए जाने-जां को छोड़ दिया। यानी अपनी तीसरी मुहब्बत को तलाक़ दे दिया।
यूं ज़िंदगी गुज़ार रहा हूं तेरे बग़ैर
जैसे कोई गुनाह किए जा रहा हूं मैं
तलाक़ के बाद असग़र साहब की साली उदास और गुमसुम रहने लगी। उसके चेहरे का रंग ज़र्द हो गया।
अपनी साली के इस हाल के लिए असग़र साहब ने ख़ुद को गुनहगार ठहराया। अपने आपको उन्होंने यूं सज़ा दी कि अपनी बेगम को तलाक़ दे दिया और साली के साथ निकाह कर लिया।
हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है
जिगर साहब की चौथी मुहब्बत
जिगर साहब कई साल तक मुशायरों में अपनी फ़नकारी का जलवा दिखाते रहे। लोग उनकी शायरी को सुन कर झूमते रहे और जिगर साहब शराब पीकर।
वे पहले शराब पी लेते इसके बाद मुशायरे में उन्हें हाथ पकड़ कर लाया जाता।
जब वे अपना कलाम पढ़ना शुरू करते, तो उनके सामने कोई ठहरता नहीं था। जिस मुशायरे में वे होते, वह मुशायरा उन्हीं का हो जाता।
हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हमसे ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं
मुशायरों में मसरूफ़ियत के बावजूद जिगर साहब अपनी तीसरी मुहब्बत को कभी भूल नहीं पाए। जुदाई की तड़प से उनकी शायरी में और ज़्यादा कशिश पैदा हुई। उम्र बढ़ने के साथ उनकी शायरी में मुहब्बत के साथ-साथ इबादत के रंग भी रोशन हो गए।
ये किसका तसव्वुर है ये किसका फ़साना है
जो अश्क है आँखों में तस्बीह का दाना है
एक दिन उन्हें ख़बर मिली कि उनके उस्ताद असग़र गोंडवी साहब का इंतक़ाल हो गया। उसी दिन जिगर साहब ने क़सम खाई कि शराब को हाथ नहीं लगाएंगे। अब वे उम्र के उस मुक़ाम पर पहुंच चुके थे जहां जिस्मानी मुहब्बत, रूहानी मुहब्बत में तब्दील हो जाती है। उन्हें एक ऐसे साथी की ज़रूरत महसूस हो रही थी जिससे वे अपने दिल का हाल कह सकें।
आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है
भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है
उस्ताद के इंतक़ाल की ख़बर सुनकर जिगर साहब गोंडा पहुंच गए। उनकी साली के सामने उन्होंने निकाह का प्रस्ताव रखा। ऊपर वाले को साक्षी मान कर हमेशा के लिए शराब से तौबा कर ली।
उस्ताद की साली ने उनका प्रस्ताव मंजूर कर लिया यानी उनके साथ दुबारा निकाह कर लिया। इस बार जिगर साहब ने अपना वादा निभाया।
रुहानी मुहब्बत में इस तरह डूब गए कि शराब को कभी हाथ नहीं लगाया। पकी उम्र की ये मुहब्बत उन्हें इतनी रास आई कि वे कभी उस्ताद का नगर छोड़ कर नहीं गए।
गोंडा में ही 70 साल की उम्र में 9 सितम्बर 1960 को जिगर साहब का इंतक़ाल हुआ।
दुनिया के सितम याद न अपनी ही वफ़ा याद
अब मुझको नहीं कुछ भी मुहब्बत के सिवा याद
गोंडा में जिगर साहब के सम्मान में एक कॉलोनी का नाम “जिगर गंज” रखा गया और एक कॉलेज का नाम “जिगर मेमोरियल इंटर कॉलेज” रखा गया।
इंतक़ाल के दो साल पहले उन्हें “आतिशे-गुल” काव्य संग्रह के लिए साहित्य अकादमी अवार्ड से भी सम्मानित किया गया था।
जिगर और मजरूह सुल्तानपुरी
कहा जाता है कि जिगर साहब के चार शागिर्द थे, मजरूह सुल्तानपुरी, शकील बदायूंनी, ख़ुमार बाराबंकवी और शमीम जयपुरी। चारों ने बहुत नाम कमाया।
सन 1945 में जब जिगर साहब एक मुशायरे में शिरकत करने के लिए मुंबई आए थे तो उनके साथ उनके शागिर्द मजरूह सुल्तानपुरी भी थे।
कुछ लोगों का कहना है कि पहले कारदार साहब ने सिनेमा में गीत लिखने के लिए जिगर साहब से गुज़ारिश की थी।
जिगर साहब ने कहा, “मैं तो एक आज़ाद पंछी हूं। एक जगह पर टिक कर नहीं रह सकता। इसलिए बेहतर होगा कि आप यह काम मजरूह से करा लें”।
जिगर साहब के मशवरे पर मजरूह सुल्तानपुरी ने फ़िल्मों में गीत लेखन का काम मंजूर किया। कई साल बाद एक मुशायरे में जिगर मुरादाबादी मुंबई तशरीफ़ लाए।
मुशायरे के बाद अचानक उनकी तबीयत बिगड़ गई। आयोजकों ने उन्हें एक साधारण नर्सिंग होम में भर्ती करा दिया।
उस समय फ़िल्म जगत में मजरूह सुल्तानपुरी को कामयाबी हासिल हो चुकी थी और वह बांद्रा में एक अच्छे मकान में रहते थे।
जब उन्हें यह ख़बर मिली तो वे ख़ुद उस नर्सिंग होम में गए और वहां से जिगर साहब को निकालकर एक अच्छे अस्पताल में दाख़िल कराया।
जब जिगर साहब ठीक हो गए तो मजरूह साहब उन्हें अपने घर पर लाए और बीस-बाइस दिन अपने घर पर रखकर अपने उस्ताद की बहुत अच्छी ख़िदमत की।
शायर ज़फ़र गोरखपुरी ने बताया था कि जब जिगर साहब जाने लगे तो उर्दू के एक प्रमुख अख़बार ने उनका इंटरव्यू किया।
इंटरव्यू में उनसे एक सवाल यह पूछा गया, ” जिगर साहब आपने दुनिया को क्या दिया?”
जिगर साहब ने झट से उत्तर दिया, “मैंने दुनिया को मजरूह सुल्तानपुरी दिया”। अख़बार ने उस इंटरव्यू की हैडिंग यही लगाई थी।
जिगर मुरादाबादी के चंद शेर
मौत जब तक नज़र नहीं आती
ज़िंदगी राह पर नहीं आती
इससे बढ़कर दोस्त कोई दूसरा होता नहीं
सब जुदा हो जाएं लेकिन ग़म जुदा होता नहीं
तेरी ख़ुशी में अगर ग़म में भी ख़ुशी न हुई
वो ज़िंदगी तो मुहब्बत की ज़िंदगी न हुई
ख़याले-यार! सलामत तुझे ख़ुदा रखे
तेरे बग़ैर कभी घर में रोशनी ना हुई
कुछ इस अदा से आज वो पहलूनशीं रहे
जब तक हमारे पास रहे हम नहीं रहे
आँखों में नमी-सी है चुप-चुप-से वो बैठे हैं
नाज़ुक-सी निगाहों में नाज़ुक-सा फ़साना है
हुस्न की इक-इक अदा पर जानो-दिल सदक़े मगर
लुत्फ़ कुछ दामन बचाकर ही निकल जाने में है
– देवमणि पांडेय
लेखक देश के विख्यात कवि एवं गीतकार हैं।
संपर्क: बी-103, दिव्य स्तुति, कन्यापाड़ा, गोकुलधाम, महाराजा टावर के पास, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव (पू), मुंबई 400063 / +9198210 82126