खेल खल्लास: 16 मुठभेड़ों का सोलह आने सच
जो कर गया, वो घर गया,
जो डर गया, वो मर गया।
मुंबई के गिरोहबाजों और उनके सरगनाओं, सेनापतियों, सिपहसालारों, किलेदारों, फौजदारों, जत्थेदारों, सूबेदारों, सुपारी हत्यारों, प्यादों तक पूरी फौज कैसी खामोशी से अपना काम करके निकल जाती है, यह देख उन दिनों बड़ा अचरज होता था, जिन्हें 80 या 90 का दशक कह सकते हैं।
आज यह सोचना भी बेकार ही लगता है। कारण है दाऊद इब्राहिम, छोटा राजन, अबू सालेम, अरुण गवली, बाबू रेशिम, माया डोलस, हाजी मस्तान, वरदराजन मुदलियार, करीम लाला, यूसुफ लाला, सुखुरनारायण बखिया, अमीरजादा पठान, आलमजेब पठान, फीलू खान जैसे नामों के बीच कुछ की मौत इस कदर बेहिस थी कि याद आता है तो अच्छा नहीं लगता है।
अपराध जगत में यह कहावत आम है – जो आग से खेलेंगा, वो आग में मरेंगा।
सच है यह।
पूरा-पूरा सच। जितने गिरोहबाजों और उनके सहयोगियों को मैं जानता हूं, जो पिस्तौलों और चाकुओं से लोगों की जान लेते रहे हैं, अंततः वे मारे भी उन्हीं हथियारों से ही थे। जान लेने-देने के खेल में खिलाड़ियों के बीच बस वक्त का ही फर्क होता है। कब-किसकी मौत आएगी, बस उतना ही अंतर होता है।
मौत कैसी भी हो, वह दुख देकर ही जाती है। जो मर जाते हैं, वे तो बस मुक्त हो जाते हैं। जो पीछे बचे रहते हैं, वे सोग मनाते हैं। गिरोहबाजों की मुठभेड़ों में मौत पर परिवार और रिश्तेदार – दोस्त – यार – गिरोह के संगी-साथी दुख से भरे होते हैं, दूसरी तरफ पुलिस और उनके शिकारों के परिजन जश्न मनाते हैं। मुठभेड़ से कुछ को मिलता है मान-सम्मान, पदक, तरक्की लेकिन दूसरी तरफ माता-पिता इससे हैरान हैं कि बेटे को कितना समझाया, पर ना माना, आज देख लो कैसी मौत मरा। कैसी हिकारत दे गया हमें भी समाज में।
मुठभेड़ों में जो मारे गए, वे बस खत्म हो गए।
इस पुस्तक में यह समीक्षा या विश्लेषण करने नहीं जा रहा कि मुठभेड़ सच्ची थीं या गलत। बस इतनी सी बात सामने रख रहा हूं कि ये कौन थे और क्यों थे। उनकी जिंदगी की असलियत क्या थी। वे क्यों अपराध के दलदल में जा धंसे। अंततः उनका अंत एक ही था – पिस्तौलों से निकला पिघला सीसा जो जिस्म में पैबस्त हुआ तो जान बाहर निकाल कर ही माना। इस किताब में 16 कहानियां हैं, जो हर गिरोहबाज का हर सच पूरा-पूरा उधेड़ कर सामने रख देता है।
यह पुस्तक लिखने का उद्देश्य समाज के उन ‘स्खलित नायकों’ की सच्ची दास्तान पेश करना है, जो पुलिस मुठभेड़ों में भले ही हताहत हुए, उनके जोश व हिम्मत के आगे दुश्मन सदा पस्त रहते थे। वे गोलियों की भाषा जानते थे, वही बोलते थे। यही कारण है कि वही भाषा उनकी समझ में भी आती थी। वही सुनना भी पसंद करते थे। वे इसी के साथ जीते हैं, इसी के साथ मरते हैं।
मुंबई माफिया में किसी की मौत पर सहज ही कहा जाता है – इसका तो हो गया खेल खल्लास। बस ये ही दो शब्द इस किताब के लिए भी मुफीद लगे – खेल खल्लास।
मुंबई माफिया में यह हर वक्त चलता रहा है, आगे भी चलता रहेगा – कभी खेल बनेगा तो कभी बिगड़ेगा भी। कभी कोई बचेगा – तो कभी किसी का हो जाएगा – खेल खल्लास।
विवेक अग्रवाल
उत्सुकता है कि यह नई किताब कैसी होगी। हम जरूर पढ़ेंगे। आपके सारे वीडियो यूट्यूब पर देखे हैं। इसमें भी कुछ नया मसाला मिलेगा हमें। अंडरव्रल्ड पर इतनी प्रामाणिक जानकारी देने के लिए आपका धन्यवाद।
आपका शुक्रिया… कुछ नए वीडियोज जल्द ही youtube.com/vivekagrawal पर अपलोड होंगे… वे भी जरूर देखें…